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कथा-कम पितशोध देवी खुदी बडे बाबू राषट का सेवक: आिखरी तोहफा: काितल

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पपपपपपपप िजले मकान की छत पर खडी सडक की ओर उिदगन और अधीर आंखो से मायाताकअपनेरही ितमं थी और सोच रही थी, वह अब तक आये कयो नही ? कहा देर लगायी ? इसी

गाडी से आने को िलखा था। गाडी तो आ गयी होगी, सटेशन से मुसािफर चले आ रहे है। इस वकत तो कोई दस ू री गाडी नही आती। शायद असबाब वगैरह रखने मे देर हुई, यार-दोसत सटेशन पर बधाई देने के िलए पहुँच गये हो, उनसे फुसरत िमलेगी, तब घर की सुध आयेगी ! उनकी जगह मै होती तो सीधे घर आती। दोसतो से कह देती , जनाब, इस वकत मुझे माफ कीिजए, िफर िमिलएगा। मगर दोसतो मे तो उनकी जान बसती है ! िमसटर वयास लखनऊ के नौजवान मगर अतयंत पितिषत बैिरसटरो मे है। तीन महीने से वह एक राजीितक मुकदमे की पैरवी करने के िलए सरकार की ओर से लाहौर गए हुए हे। उनहोने माया को िलखा था—जीत हो गयी। पहली तारीख को मै शाम की मेल मे जरर पहंच ु ूंगा। आज वही शाम है। माया ने आज सारा िदन तैयािरयो मे िबताया। सारा मकान धुलवाया। कमरो की सजावट के सामान साफ कराये, मोटर धुलवायी। ये तीन महीने उसने तपसया के काटे थे। मगर अब तक िमसटर वयास नही आये। उसकी छोटी बचची ितलोतमा आकर उसके पैरो मे िचमट गयी और बोली—अममा, बाबूजी कब आयेगे ? माया ने उसे गोद मे उठा िलया और चूमकर बोली—आते ही होगे बेटी, गाडी तो कब की आ गयी। ितलोतमा—मेरे िलए अचछी गुिडया लाते होगे। माया ने कुछ जवाब न िदया। इनतजार अब गुससे मे बदलता जाता था। वह सोच रही थी, िजस तरह मुझे हजरत परेशान कर रहे है, उसी तरह मै भी उनको परेशान करँगी। घणटे-भर तक बोलूंगी ही नही। आकर सटेशन पर बैठे हुए है ? जलाने मे उनहे मजा आता है । यह उनकी पुरानी आदत है। िदल को कया करँ। नही, जी तो यही चाहता है िक जैसे वह मुझसे बेरखी िदखलाते है, उसी तरह मै भी उनकी बात न पूछूँ। यकायक एक नौकर ने ऊपर आकर कहा—बहू जी, लाहौर से यह तार आया है। माया अनदर-ही-अनदर जल उठी। उसे ऐसा मालूम हुआ िक जैसे बडे जोर की हरारत हो गयी हो। बरबस खयाल आया—िसवाय इसके और कया िलखा होगा िक इस गाडी से न आ सकूंगा। तार दे देना कौन मुिशकल है। मै भी कयो न तार दे दंू िक मै एक महीने के िलए मैके जा रही हूँ। नौकर से कहा—तार ले जाकर कमरे मे मेज पर रख दो। मगर िफर कुछ सोचकर उसने िलफाफा ले िलया और खोला ही था िक कागज हाथ से छू टकर िगर पडा। िलखा था—िमसटर वयास को आज दस बजे रात िकसी बदमाश ने कतल कर िदया। २ ई महीने बीत गये। मगर खूनी का अब तक पता नही चला। खुिफया पुिलस के अनुभवी लोग उसका सुराग लगाने की िफक मे परेशान है। खूनी को िगरफतार करा देनेवाले को बीस हजार रपये इनाम िदये जाने का एलान कर िदया गया है। मगर कोई नतीजा नही । िजस होटल मे िमसटर वयास ठहरे थे, उसी मे एक महीने से माया ठहरी हुई है। उस कमरे से उसे पयार-सा हो गया है। उसकी सूरत इतनी बदल गयी है िक अब उसे पहचानना मुिशकल है। मगर उसके चेहरे पर बेकसी या ददर का पीलापन नही कोध की गमी िदखाई पडती है। उसकी नशीली ऑंखो मे अब खून की पयास है और पितशोध की लपट। उसके शरीर का एक-एक कण पितशोध की आग से जला जा रहा है। अब यही उसके जीवन का धयेय, यही उसकी सबसे बडी अिभलाषा है। उसके पेम की सारी िनिध अब यही पितशोध का आवेग है। िजस पापी ने उसके जीवन का सवरनाश कर िदया उसे अपने सामने तडपते देखकर ही उसकी आंखे ठणडी होगी। खुिफया पुिलस भय और लोभ, जॉँच और पडताल से



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काम ले रही है, मगर माया ने अपने लकय पर पहुँचने के िलए एक दस ू रा ही रासता अपनाया है। िमसटर वयास को पेत-िवदा से लगाव था। उनकी संगित मे माया ने कुछ आरिमभक अभयास िकया था। उस वकत उसके िलए यह एक मनोरंजन था। मगर अब यही उसके जीवन का समबल था। वह रोजाना ितलोतमा पर अमल करती और रोज-ब-रोज अभयास बढाती जाती थी। वह उस िदन का इनतजार कर रही थी जब अपने पित की आतमा को बुलाकर उससे खूनी का सुराग लगा सकेगी। वह बडी लगन से, बडी एकागिचतता से अपने काम मे वयसत थी। रात के दस बज गये थे। माया ने कमरे को अंधेरा कर िदया था और ितलोतमा पर अभयास कर रही थी। यकायक उसे ऐसा मालूम िक कमरे मे कोई िदवय वयिकततव आया। बुझते हुए दीपक की अंितम झलक की तरह एक रोशनी नजर आयी। माया ने पूछा—आप कौन है ? ितलोतमा ने हंसकर कहा—तुम मुझे नही पहचानती ? मै ही तुमहारा मनमोहन हूँ जो दुिनया मे िमसटर वयास के नाम से मशहूर था। ‘आप खूब आये। मै आपसे खूनी का नाम पूछना चाहती हूँ।’ ‘उसका नाम है, ईशरदास।’ ‘कहा रहता है ?’ ‘शाहजहॉपुर।’ माया ने मुहलले का नाम, मकान का नमबर, सूरत-शकल, सब कुछ िवसतार के साथ पूछा और कागज पर नोट कर िलया। ितलोतमा जरा देर मे उठ बैठी। जब कमरे मे िफर रोशनी हुई तो माया का मुरझाया हुआ चेहरा िवजय की पसनता से चमक रहा था। उसके शरीर मे एक नया जोश लहरे मार रहा था िक जैसे पयास से मरते हुए मुसािफर को पानी िमल गया हो। उसी रात को माया ने लाहौर से शाहजहापुर आने का इरादा िकया। ३ त का वकत। पंजाब मेल बडी तेजी से अंधेरे को चीरती हुई चली जा रही थी। माया एक सेकेणड कलास के कमरे मे बैठी सोच रही थी िक शाहजहॉपुर मे कहा ठहरेगी, कैसे ईशरदास का मकान तलाशा करेगी और कैसे उससे खून का बदला लेगी। उसके बगल मे ितलोतमा बेखबर सो रही थी सामने ऊपर के बथर पर एक आदमी नीद मे गािफल पडा हुआ था। यकायक गाडी का कमरा खुला और दो आदमी कोट-पतलून पहने हुए कमरे मे दािखल हुए। दोनो अंगेज थे। एक माया की तरफ बैठा और दस ू रा दस ू री तरफ। माया िसमटकर बैठ गयी । इन आदिमयो को यो बैठना उसे बहुत बुरा मालूम हुआ। वह कहना चाहती थी, आप लोग दस ू री तरफ बैठे, पर वही औरत जो खून का बदला लेने जा रही थी, सामने यह खतरा देखकर काप उठी। वह दोनो शैतान उसे िसमटते देखकर और भी करीब आ गये। माया अब वहा न बैठी रह सकी । वह उठकर दस ू रे वथर पर जाना चाहती थी िक उनमे से एक ने उसका हाथ पकड िलया । माया ने जोर से हाथ छुडाने की कोिशश करके कहा—तुमहारी शामत तो नही आयी है, छोड दो मेरा हाथ, सुअर ? इस पर दस ू रे आदमी ने उठकर माया को सीने से िलपटा िलया। और लडखडाती हुई जबान से बोला—वेल हम तुमका बहुत-सा रपया देगा। माया ने उसे सारी ताकत से ढकेलने की कोिशश करते हुए कहा—हट जा हरामजादे, वना अभी तेरा सर तोड दंगू ी। दस ू रा आदमी भी उठ खडा हुआ और दोनो िमलकर माया को बथर पर िलटाने की कोिशश करने लगे ।यकायक यह खटपट सुनकर ऊपर के बथर पर सोया हुआ आदी चौका और उन बदमाशो की हरकत देखकर ऊपर से कूद पडा। दोनो गोरे उसे देखकर माया को छोड उसकी तरफ झपटे और उसे घूंसे मारने लगे। दोनो उस पर ताबडतोडं हमला कर रहे

रा

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थे और वह हाथो से अपने को बचा रहा था। उसे वार करने का कोई मौका न िमलता था। यकायक उसने उचककर अपने िबसतर मे से एक छू रा िनकाल िदया और आसतीने समेटकर बोला—तुम दोनो अगर अभी बाहर न चले गये तो मै एक को भी जीता ना छोडुँगा। दोनो गोरे छुरा देखकर डरे मगर वह भी िनहतथे न थे। एक ने जेब से िरवालवर िनकल िलया और उसकी नली उस आदमी की तरफ करके बोला-िनकल जाओ, रैसकल ! माया थर-थर काप रही थी िक न जाने कया आफत आने वाली हे । मगर खतरा हमारी िछपी हुई िहममतो की कु ंजी है। खतरे मे पडकर हम भय की सीमाओं से आगे बढ जाते है कुछ कर गुजरते है िजस पर हमे खुद हैरत होती है। वही माया जो अब तक थर-थर काप रही थी, िबलली की तरह कूद कर उस गोरे की तरफ लपकी और उसके हाथ से िरवालवर खीचकर गाडी के नीचे फेक िदया। गोरे ने िखिसयाकर माया को दात काटना चाहा मगर माया ने जलदी से हाथ खीच िलया और खतरे की जंजीर के पास जाकर उसे जोर से खीचा। दस ू रा गोरा अब तक िकनारे खडा था। उसके पास कोई हिथयार न था इसिलए वह छुरी के सामने न आना चाहता था। जब उसने देखा िक माया ने जंजीर खीच ली तो भीतर का दरवाजा खोलकर भागा। उसका साथी भी उसके पीछे-पीछे भागा। चलते-चलते छुरी वाले आदमी ने उसे इतने जोर से धका िदया िक वह मुंह के बल िगर पडा। िफर तो उसने इतनी ठोकरे, इतनी लाते और इतने घुंसे जमाये िक उसके मुंह से खून िनकल पडा। इतने मे गाडी रक गयी और गाडर लालटेन िलये आता िदखायी िदया। ४ गर वह दोनो शैतान गाडी को रकते देख बेतहाशा नीचे कूद पडे और उस अंधेरे मे न जाने कहा खो गये । गाडर ने भी जयादा छानबीन न की और करता भी तो उस अंधेरे मे पता लगाना मुिशकल था । दोनो तरफ खडड थे, शायद िकसी नदी के पास थी। वहा दो कया दो सौ आदमी उस वकत बडी आसानी से िछप सकते थे। दस िमनट तक गाडी खडी रही, िफर चल पडी। माया ने मुिकत की सास लेकर कहा—आप आज न होते तो ईशर ही जाने मेरा कया हाल होता आपके कही चोट तो नही आयी ? उस आदमी ने छुरे को जेब मे रखते हुए कहा—िबलकुल नही। मै ऐसा बेसुध सोया हुआ था िक उन बदमाशो के आने की खबर ही न हुई। वना मैने उनहे अनदर पाव ही न रखने िदया होता । अगले सटेशन पर िरपोटर करँगा। माया—जी नही, खामखाह की बदनामी और परेशानी होगी। िरपोटर करने से कोई फायदा नही। ईशर ने आज मेरी आबर रख ली। मेरा कलेजा अभी तक धड-धड कर रहा है। आप कहा तक चलेगे? ‘मुझे शाहजहॉपुर जाना है।’ ‘वही तक तो मुझे भी जाना है। शुभ नाम कया है ? कम से कम अपने उपकारक के नाम से तो अपिरिचत न रहूँ। ‘मुझे तो ईशरदास कहते है। ‘माया का कलेजा धक् से हो गया। जरर यह वही खूनी है, इसकी शकल-सूरत भी वही है जो उसे बतलायी गयी थी उसने डरते-डरते पूछा—आपका मकान िकस मुहलले मे है ? ‘.....मे रहता हूँ। माया का िदल बैठ गया। उसने िखडकी से िसर बाहर िनकालकर एक लमबी सास ली। हाय ! खूनी िमला भी तो इस हालत मे जब वह उसके एहसान के बोझ से दबी हुई है ! कया उस आदमी को वह खंजर का िनशाना बना सकती है, िजसने बगैर िकसी पिरचय के िसफर हमददी के जोश मे ऐसे गाढे वकत मे उसकी मदद की ? जान पर खेल गया ? वह एक अजीब उलझन मे पड गयी । उसने उसके चेहरे की तरफ देखा, शराफत झलक रही थी। ऐसा आदमी खून कर सकता है, इसमे उसे सनदेह था



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रही है?

ईशरदास ने पूछा—आप लाहौर से आ रही है न ? शाहजहापुर मे कहा जाइएगा ? ‘अभी तो कही धमरशाला मे ठहरंगी, मकान का इनतजाम करना है।’ ईशरदास ने ताजजुब से पूछा—तो वहा आप िकसी दोसत या िरशतेदार के यहा नही जा

‘कोई न कोई िमल ही जाएगा।’ ‘यो आपका असली मकान कहा है?’ ‘असली मकान पहले लखनऊ था, अब कही नही है। मै बेवा हूँ।’ ५ शर दास ने शाहजहॉँपुर मे माया के िलए एक अचछा मकान तय कर िदया । एक नौकर भी रख िदया । िदन मे कई बार हाल-चाल पूछने आता। माया िकतना ही चाहती थी िक उसके एहसान न ले, उससे घिनषता न पैदा करे, मगर वह इतना नेक, इतना बामुरौवत और शरीफ था िक माया मजबूर हो जाती थी। एक िदन वह कई गमले और फनीचर लेकर आया। कई खूबसूरत तसवीरे भी थी। माया ने तयौिरया चढाकर कहा—मुझे साज-सामान की िबलकुल जररत नही, आप नाहक तकलीफ करते है। ईशरदास ने इस तरह लिजजत होकर िक जैसे उससे कोई भूल हो गयी हो कहा—मेरे घर मे यह चीजे बेकार पडी थी, लाकर रख दी। ‘मै इन टीम-टाम की चीजो का गुलाम नही बनना चाहती।’ ईशरदास ने डरते-डरते कहा –अगर आपको नागवार हो तो उठवा ले जाऊँ ? माया ने देखा िक उसकी ऑंखे भर आयी है, मजबूर होकर बोली—अब आप ले आये है तो रहने दीिजए। मगर आगे से कोई ऐसी चीज न लाइएगा एक िदन माया का नौकर न आया। माया ने आठ-नौ बजे तक उसकी राह देखी जब अब भी वह न आया तो उसने जूठे बतरन माजना शुर िकया। उसे कभी अपने हाथ से चौका –बतरन करने का संयोग न हआ ु था। बार-बार अपनी हालत पर रोना आता था एक िदन वह था िक उसके घर मे नौकरो की एक पलटन थी, आज उसे अपने हाथो बतरन माजने पड रहे है। ितलोतमा दौड-दौड कर बडे जोश से काम कर रही थी। उसे कोई िफक न थी। अपने हाथो से काम करने का, अपने को उपयोगी सािबत करने का ऐसा अचछा मौका पाकर उसकी खुशी की सीमा न रही । इतने मे ईशरदास आकर खडा हो गया और माया को बतरन माजते देखकर बोला—यह आप कया कर रही है ? रहने दीिजए, मै अभी एक आदमी को बुलावाये लाता हूँ। आपने मुझे कयो ने खबर दी, राम-राम, उठ आइये वहा से । माया ने लापरवाही से कहा—कोई जररत नही, आप तकलीफ न कीिजए। मै अभी माजे लेती हूँ। ‘इसकी जररत भी कया, मै एक िमनट मे आता हूँ।’ ‘नही, आप िकसी को न लाइए, मै इतने बतरन आसानी से धो लूँगी।’ ‘अचछा तो लाइए मै भी कुछ मदद करँ।’ यह कहकर उसने डोल उठा िलया और बाहर से पानी लेने दौडा। पानी लाकर उसने मंजे हुए बतरनो को धोना शुर िकया। माया ने उसके हाथ से बतरन छीनने की कोिशश करके कहा—आप मुझे कयो शिमरनदा करते है ? रहने दीिजए, मै अभी साफ िकये डालती हूँ। ‘आप मुझे शिमरदा करती है या मै आपको शिमरदा कर रहा हूँ? आप यहॉँ मुसािफर है , मै यहा का रहने वाला हूँ, मेरा धमर है िक आपकी सेवा करँ। आपने एक जयादती तो यह की िक मुझे जरा भी खबर न दी, अब दस ू री जयादती यह कर रही है। मै इसे बदाशत नही कर सकता ।’



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ईशरदास ने जरा देर मे सारे बतरन साफ करके रख िदये। ऐसा मालूम होता था िक वह ऐसे कामो का आदी है। बतरन धोकर उसने सारे बतरन पानी से भर िदये और तब माथे से पसीना पोछता हुआ बोला–बाजार से कोई चीज लानी हो तो बतला दीिजए, अभी ला दँ। ू माया—जी नही, माफ कीिजए, आप अपने घर का रासता लीिजए। ईशरदास—ितलोतमा, आओ आज तुमहे सैर करा लाये। माया—जी नही, रहने दीिजएं। इस वकत सैर करने नही जाती। माया ने यह शबद इतने रखेपन से कहे िक ईशरदास का मुंह उतर गया। उसने दुबारा कुछ न कहा। चुपके से चला गया। उसके जाने के बाद माया ने सोचा, मैने उसके साथ िकतनी बेमुरौवती की। रेलगाडी की उस दु :खद घटना के बाद उसके िदल मे बराबर पितशोध और मनुषयता मे लडाई िछडी हुई थी। अगर ईशरदास उस मौके पर सवगर के एक दत ू की तरह न आ जाता तो आज उसकी कया हालत होती, यह खयाल करके उसके रोएं खडे हो जाते थे और ईशादास के िलए उसके िदल की गहराइयो से कृतजता के शबद िनकलते । कया अपने ऊपर इतना बडा एहसान करने वाले के खून से अपने हाथ रंगेगी ? लेिकन उसी के हाथो से उसे यह मनहूस िदन भी तो देखना पडा ! उसी के कारण तो उसने रेल का वह सफर िकया था वना वह अकेले िबना िकसी दोसत या मददगार के सफर ही कयो करती ? उसी के कारण तो आज वह वैधवय की िवपितया झेल रही है और सारी उम झेलेगी। इन बातो का खयाल करके उसकी आंखे लाल हो जाती, मुंह से एक गमर आह िनकल जाती और जी चाहता इसी वकत कटार लेकरचल पडे और उसका काम तमाम कर दे। ६ ज माया ने अिनतम िनशय कर िलया। उसने ईशरदास की दावत की थी। यही उसकी आिखरी दावत होगी। ईशरदास ने उस पर एहसान जरर िकये है लेिकन दुिनया मे कोई एहसान, कोई नेकी उस शोक के दाग को िमटा सकती है ? रात के नौ बजे ईशादास आया तो माया ने अपनी वाणी मे पेम का आवेग भरकर कहा—बैिठए, आपके िलए गमर-गमर पूिडयॉं िनकाल दँू ? ईशरदास—कया अभी तक आप मेरे इनतजार मे बैठी हुई है ? नाहक गमी मे परेशान ह ुई। माया ने थाली परसकर उसके सामने रखते हुए कहा—मै खाना पकाना नही जानती ? अगर कोई चीज अचछी न लगे तो माफ कीिजएगा। ईशरदास ने खूब तारीफ करके एक-एक चीज खायी। ऐसी सवािदष चीजे उसने अपनी उम मे कभी न खायी थी। ‘आप तो कहती थी मै खाना पकाना नही जानती ?’ ‘तो कया मै गलत कहती थी ?’ ‘िबलकुल गलत। आपने खुद अपनी गलती सािबत कर दी। ऐसे खसते मैने िजनदगी मे भी न खाये थे।’ ‘आप मुझे बनाते है, अचछा साहब बना लीिजए।’ ‘नही, मै बनाता नही, िबलकुल सच कहता हूँ। िकस-कीस चीज की तारीफ करं? चाहता हूँ िक कोई ऐब िनकालूँ, लेिकन सूझता ही नही। अबकी मै अपने दोसतो की दावत करंगा तो आपको एक िदन तकलीफ दंगू ा।’ ‘हा, शौक से कीिजए, मै हािजर हूँ।’ खाते-खाते दस बज गये। ितलोतमा सो गयी। गली मे भी सनाटा हो गया। ईशरदास चलने को तैयार हुआ, तो माया बोली—कया आप चले जाएंगे ? कयो न आज यही सो रिहए? मुझे कुछ डर लग रहा है। आप बाहर के कमरे मे सो रिहएगा, मै अनदर आंगन मे सो रहूँगी



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ईशरदास ने कण-भर सोचकर कहा—अचछी बात है। आपने पहले कभी न कहा िक आपको इस घर मे डर लगता है वना मै िकसी भरोसे की बुडढी औरत को रात को सोने के िलए ठीक कर देता । ईशरदास ने तो कमरे मे आसन जमाया, माया अनदर खाना खाने गयी। लेिकन आज उसके गले के नीचे एक कौर भी न उतर सका। उसका िदल जोर-जोर से घडक रहा था। िदल पर एक डर–सा छाया हुआ था। ईशरदास कही जाग पडा तो ? उसे उस वकत िकतनी शिमरनदगी होगी ! माया ने कटार को खूब तेज कर रखा था। आज िदन-भर उसे हाथ मे लेकर अभयास िकया । वह इस तरह वार करेगी िक खाली ही न जाये। अगर ईशरदास जाग ही पडा तो जानलेवा घाव लगेगा। जब आधी रात हो गयी और ईशरदास के खराटो की आवाजे कानो मे आने लगी तो माया कटार लेकर उठी पर उसका सारा शरीर काप रहा था। भय और संकलप, आकषरण और घृणा एक साथ कभी उसे एक कदम आगे बढा देती, कभी पीछे हटा देती । ऐसा मालूम होता था िक जैसे सारा मकान, सारा आसमान चकर खा रहा है कमरे की हर एक चीज घूमती हुई नजर आ रही थी। मगर एक कण मे यह बेचैनी दरू हो गयी और िदल पर डर छा गया। वह दबे पाव ईशरदास के कमरे तक आयी, िफर उसके कदम वही जम गये। उसकी आंखो से आंसू बहने लगे। आह, मै िकतनी कमजोर हूँ, िजस आदमी ने मेरा सवरनाश कर िदया, मेरी हरीभरी खेती उजाड दी, मेरे लहलहाते हुए उपवन को वीरान कर िदया, मुझे हमेशा के िलए आग के जलते हुए कु ंडो मे डाल िदया, उससे मै खून का बदला भी नही ले सकती ! वह मेरी ही बहने थी, जो तलवार और बनदक ू लेकर मैदान मे लडती थी, दहकती हुई िचता मे हंसते-हंसते बैठ जाती थी। उसे उस वकत ऐसा मालूम हुआ िक िमसटर वयास सामने खडे है और उसे आगे बढने की पेरणा कर रहे है, कह रहे है, कया तुम मेरे खून का बदला न लोगी ? मेरी आतमा पितशोध के िलए तडप रही है । कया उसे हमेशा-हमेशा यो ही तडपाती रहोगी ? कया यही वफा की शतर थी ? इन िवचारो ने माया की भावनाओं को भडका िदया। उसकी आंखे खून की तरह लाल हो गयी, होठ दातो के नीचे दब गये और कटार के हतथे पर मुटठी बंध गयी। एक उनमाद-सा छा गया। उसने कमरे के अनदर पैर रखा मगर ईशरदास की आंखे खुल गयी थी। कमरे मे लालटेन की मिदम रोशनी थी। माया की आहट पाकर वह चौका और िसर उठाकर देखा तो खून सदर हो गया—माया पलय की मूितर बनी हाथ मे नंगी कटार िलये उसकी तरफ चली आ रही थी! वह चारपाई से उठकर खडा हो गया और घबडाकर बोला—कया है बहन ? यह कटार कयो िलये हुए हो ? माया ने कहा—यह कटार तुमहारे खून की पयासी है कयोिक तुमने मेरे पित का खून िकया है। ईशरदास का चेहरा पीला पड गया । बोला—मैने ! ‘हा तुमने , तुमही ने लाहौर मे मेरे पित की हतया की, जब वे एक मुकदमे की पैरवी करने गये थे। कया तुम इससे इनकार कर सकते हो ?मेरे पित की आतमा ने खुद तुमहारा पता बतलाया है।’ ‘तो तूम िमसटर वयास की बीवी हो?’ ‘हा, मै उनकी बदनसीब बीवी हूँ और तुम मेरा सोहाग लूटनेवाले हो ! गो तुमने मेरे ऊपर एहसान िकये है लेिकन एहसानो से मेरे िदल की आग नही बुझ सकती। वह तुमहारी खून ही से बुझेगी।’ ईशरदास ने माया की ओर याचना-भरी आंखो से देखकर कहा—अगर आपका यही फैसला है तो लीिजए यह सर हािजर है। अगर मेरे खून से आपके िदल की आग बुझ जाय तो मै खुद उसे आपके कदमो पर िगरा दँग ू ा। लेिकन िजस तरह आप मेरे खून से अपनी तलवार

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की पयास बुझाना अपना धमर समझती है उसी तरह मैने भी िमसटर वयास को कतल करना अपना धमर समझा। आपको मालूम है, वह एक रानीितक मुकदमे की पैरवी करने लाहौर गये थे। लेिकन िमसटर वयास ने िजस तरह अपनी ऊंची कानूनी िलयाकत का इसतेमाल िकया, पुिलस को झुठी शहादतो के तैयार करने मे िजस तरह मदद दी, िजस बेरहमी और बेददी से बेकस और जयादा बेगुनाह नौजवानो को तबाह िकया, उसे मै सह न सकता था। उन िदनो अदालत मे तमाशाइयो की बेइनता भीड रहती थी। सभी अदालत से िमसटर वयास को कोसते हुए जाते थे मै तो मुकदमे की हकीकत को जानता था । इस िलए मेरी अनतरातमा िसफर कोसने और गािलयॉँ देने से शात न हो सकती थी । मै आपसे कया कहूँ । िमसटर वयास ने आखं खोलकर समझ- बूझकर झूठ को सच सािबत िकया और िकतने ही घरानो को बेिचराग कर िदया आज िकतनी माए अपने बेटो के िलए खून के आंसू रो रही है, िकतनी ही औरते रंडापे की आग मे जल रही है। पुिलस िकतनी ही जयादितया करे, हम परवाह नही करते । पुिलस से हम इसके िसवा और उममीद नही रखते। उसमे जयादातर जािहल शोहदे लुचचे भरे हुए है । सरकार ने इस महकमे को कायम ही इसिलए िकया है िक वह िरआया को तंग करे। मगर वकीलो से हम इनसाफ की उममीद रखते है। हम उनकी इजजत करते है । वे उचचकोिट के पढे िलखे सजग लोग होते है । जब ऐसे आदिमयो को हम पुिलस के हाथो की कठपुतली बना हुआ देखते है तो हमारे कोध की सीमा नही रहती मै िमसटर वयास का पशंसक था। मगर जब मैने उनहे बेगुनाह मुलिजमो से जबरन जुमर का इकबाल कराते देखा तो मुझे उनसे नफरत हो गयी । गरीब मुलिजम रात िदन भर उलटे लटकाये जाते थे ! िसफर इसिलए िक वह अपना जुमर, तो उनहोने कभी नही िकया, इकबाल कर ले ! उनकी नाक मे लाल िमचर का धुआं डाला जाता था ! िमसटर वयास यह सारी जयादाितया िसफर अपनी आंखो से देखते ही नही थे, बिलक उनही के इशारे पर वह की जाती थी। माया के चेहरे की कठोरता जाती रही । उसकी जगह जायज गुससे की गमी पैदा हुई । बोली–इसका आपके के पास कोई सबूत है िक उनहोने मुलिजमो पर ऐसी सिखतया की ? ‘यह सारी बाते आमतौर पर मशहूर थी । लाहौर का बचचा बचचा जानता है। मैने खुद अपनी आंखो से देखी इसके िसवा मै और कया सबूत दे सकता हूँ उन बेचारो का बस इतना कसूर था। िक वह िहनदुसतान के सचचे दोसत थे, अपना सारा वकत पजा की िशका और सेवा मे खचर करते थे। भूखे रहते थे, पजा पर पुिलस हुकाम की सिखतंया न होने देते थे, यही उनका गुनाह था और इसी गुनाह की सजा िदलाने मे िमसटर वयास पुिलस के दािहने हाथ बने हुए थे!’ माया के हाथ से खंजर िगर पडा। उसकी आंखो मे आंसू भर आये, बोली मुझे न मालूम था िक वे ऐसी हरकते भी कर सकते है। ईशरदास ने कहा- यह न समिझए िक मै आपकी तलवार से डर कर वकील साहब पर झूठे इलजाम, लगा रहा हूं । मैने कभी िजनदगी की परवाह नही की। मेरे िलए कौन रोने वाला बैठा हुआ है िजसके िलए िजनदगी की परवाह करँ। अगर आप समझती है िक मैने अनुंिचत हतया की है तो आप इस तलवार को उठाकर इस िजनदगी का खातमा कर दीिजए, मै जरा भी न िझझकूगा। अगर आप तलवार न उठा सके तो पुिलस को खबर कर दीिजए, वह बडी आसानी से मुझे दुिनया से रखसत कर सकती है। सबूत िमल जाना मुिशकल न होगा। मै खुद पुिलस के सामने जुमर का इकबाल कर लेता मगर मै इसे जुमर नही समझता। अगर एक जान से सैकडो जाने बच जाएं तो वह खून नही है। मै िसफर इसिलए िजनदा रहना चाहता हूँ िक शायद िकसी ऐसे ही मौके पर मेरी िफर जररत पडे माया ने रोते हुए- अगर तुमहारा बयान सही है तो मै अपना, खून माफ करती हूँ तुमने जो िकया या बेजा िकया इसका फैसला ईशर करेगे। तुमसे मेरी पाथरना है िक मेरे पित के हाथो जो घर तबाह हुए है। उनका मुझे पता बतला दो, शायद मै उनकी कुछ सेवा कर सकूँ। -- पेमचालीसा’ से

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पपपप

रा

त भीग चुकी थी। मै बरामदे मे खडा था। सामने अमीनुददौला पाकर नीदं मे डू बा खडा था। िसफर एक औरत एक तिकयादार वेचं पर बैठी हंुई थी। पाकर के बाहर सडक के िकनारे एक फकीर खडा राहगीरो को दुआएं दे रहा था। खुदा और रसूल का वासता......राम और भगवान का वासता..... इस अंधे पर रहम करो । सडक पर मोटरो ओर सवािरयो का ताता बनद हो चुका था। इके–दुके आदमी नजर आ जाते थे। फकीर की आवाज जो पहले नकारखाने मे तूती की आवाज थी अब खुले मैदान की बुलंद पुकार हो रही थी ! एकाएक वह औरत उठी और इधर उधर चौकनी आंखो से देखकर फकीर के हाथ मे कुछ रख िदया और िफर बहुत धीमे से कुछ कहकर एक तरफ चली गयी। फकीर के हाथ मे कागज का टुकडा नजर आया िजसे वह बार बार मल रहा था। कया उस औरत ने यह कागज िदया है ? यह कया रहसय है ? उसके जानने के कूतूहल से अधीर होकर मै नीचे आया ओर फेकीर के पास खडा हो गया। मेरी आहट पाते ही फकीर ने उस कागज के पुजे को दो उंगिलयो से दबाकर मुझे िदखाया। और पूछा,- बाबा, देखो यह कया चीज है ? मैने देखा– दस रपये का नोट था ! बोला– दस रपये का नोट है, कहा पाया ? फकीर ने नोट को अपनी झोली मे रखते हुए कहा-कोई खुदा की बनदी दे गई है। मैने ओर कुछ ने कहा। उस औरत की तरफ दौडा जो अब अधेरे मे बस एक सपना बनकर रह गयी थी। वह कई गिलयो मे होती हुई एक टू टे–फूटे िगरे-पडे मकान के दरवाजे पर रकी, ताला खोला और अनदर चली गयी। रात को कुछ पूछना ठीक न समझकर मै लौट आया। रातभर मेरा जी उसी तरफ लगा रहा। एकदम तडके मै िफर उस गली मे जा पहुचा । मालूम हुआ वह एक अनाथ िवधवा है। मैने दरवाजे पर जाकर पुकारा – देवी, मै तुमहारे दशरन करने आया हूँ। औरत बहार िनकल आयी। गरीबी और बेकसी की िजनदा तसवीर मैने िहचकते हुए कहा- रात आपने फकीर को.................. देवी ने बात काटते हुए कहा– अजी वह कया बात थी, मुझे वह नोट पडा िमल गया था, मेरे िकस काम का था। मैने उस देवी के कदमो पर िसर झुका िदया। - पेमचालीसा’ से

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खुदी वकत िदलदारनगर मे आयी, उसकी उम पाच साल से जयादा न थी। वह िबलकुल मुनीअकेिजस ली न थी, मा-बाप दोनो न मालूम मर गये या कही परदेस चले गये थे। मुती िसफर

इतना जानती थी िक कभी एक देवी उसे िखलाया करती थी और एक देवता उसे कंधे पर लेकर खेतो की सैर कराया करता था। पर वह इन बातो का िजक कुछ इस तरह करती थी िक जैसे उसने सपना देखा हो। सपना था या सचची घटना, इसका उसे जान न था। जब कोई पूछता तेरे मॉँ-बाप कहा गये ? तो वह बेचारी कोई जवाब देने के बजाय रोने लगती और यो ही उन सवालो को टालने के िलए एक तरफ हाथ उठाकर कहती—ऊपर। कभी आसमान की तरफ देखकर कहती—वहा। इस ‘ऊपर’ और ‘वहा’ से उसका कया मतलब था यह िकसी को मालूम न होता। शायद मुनी को यह खुद भी मालूम न था। बस, एक िदन लोगो ने उसे एक पेड के नीचे खेलते देखा और इससे जयादा उसकी बाबत िकसी को कुछ पता न था। लडकी की सूरत बहुत पयारी थी। जो उसे देखता, मोह जाता। उसे खाने -पीने की कुछ िफक न रहती। जो कोई बुलाकर कुछ दे देता, वही खा लेती और िफर खेलने लगती। शकल-सूरज से वह िकसी अचछे घर की लडकी मालूम होती थी। गरीब-से-गरीब घर मे भी उसके खाने को दो कौर और सोने को एक टाट के टुकडे की कमी न थी। वह सबकी थी, उसका कोई न था। इस तरह कुछ िदन बीत गये। मुनी अब कुछ काम करने के कािबल हो गयी। कोई कहता, जरा जाकर तालाब से यह कपडे तो धो ला। मुनी िबना कुछ कहे-सुने कपडे लेकर चली जाती। लेिकन रासते मे कोई बुलाकर कहता, बेटी, कुऍं से दो घडे पानी तो खीच ला, तो वह कपडे वही रखकर घडे लेकर कुऍं की तरफ चल देती। जरा खेत से जाकर थोडा साग तो ले आ और मुनी घडे वही रखकर साग लेने चली जाती। पानी के इनतजार मे बैठी हुई औरत उसकी राह देखते-देखते थक जाती। कुऍं पर जाकर देखती है तो घडे रखे हुए है। वह मुनी को गािलयॉँ देती हुई कहती, आज से इस कलमुँही को कुछ खाने को न दँग ू ी। कपडे के इनतजार मे बैठी हुई औरत उसकी राह देखते-देखते थक जाती और गुससे मे तालाब की तरफ जाती तो कपडे वही पडे हुए िमलते। तब वह भी उसे गािलयॉँ देकर कहती, आज से इसको कुछ खाने को न दँग ू ी। इस तरह मुनी को कभी-कभी कुछ खाने को न िमलता और तब उसे बचपन याद आता, जब वह कुछ काम न करती थी और लोग उसे बुलाकर खाना िखला देते थे। वह सोचती िकसका काम करँ, िकसका न करँ िजसे जवाब दँू वही नाराज हो जायेगा। मेरा अपना कौन है, मै तो सब की हूँ। उसे गरीब को यह न मालूम था िक जो सब का होता है वह िकसी का नही होता। वह िदन िकतने अचछे थे, जब उसे खाने -पीने की और िकसी की खुशी या नाखुशी की परवाह न थी। दुभागय मे भी बचपन का वह समय चैन का था। कुछ िदन और बीते, मुनी जवान हो गयी। अब तक वह औरतो की थी, अब मदो की हो गयी। वह सारे गॉँव की पेिमका थी पर कोई उसका पेमी न था। सब उससे कहते थे—मै तुम पर मरता हूँ, तुमहारे िवयोग मे तारे िगनता हूँ, तुम मेरे िदलोजान की मुराद हो, पर उसका सचचा पेमी कौन है, इसकी उसे खबर न होती थी। कोई उससे यह न कहता था िक तू मेरे दुख-ददर की शरीक हो जा। सब उससे अपने िदल का घर आबाद करना चाहते थे। सब उसकी िनगाह पर, एक मिदम-सी मुसकराहट पर कुबान होना चाहते थे; पर कोई उसकी बाह पकडनेवाला, उसकी लाज रखनेवाला न था। वह सबकी थी, उसकी मुहबबत के दरवाजे सब पर खुले हुए थे ; पर कोई उस पर अपना ताला न डालता था िजससे मालूम होता िक यह उसका घर है, और िकसी का नही।

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वह भोली-भाली लडकी जो एक िदन न जाने कहॉँ से भटककर आ गयी थी, अब गॉँव की रानी थी। जब वह अपने उतत वको को उभारकर रप-गवर से गदरन उठाये, नजाकत से लचकती हुई चलती तो मनचले नौजवान िदल थामकर रह जाते, उसके पैरो तले ऑंखे िबछाते। कौन था जो उसके इशारे पर अपनी जान न िनसार कर देता। वह अनाथ लडकी िजसे कभी गुिडयॉँ खेलने को न िमली, अब िदलो से खेलती थी। िकसी को मारती थी। िकसी को िजलाती थी, िकसी को ठुकराती थी, िकसी को थपिकयॉँ देती थी, िकसी से रठती थी, िकसी को मनाती थी। इस खेल मे उसे कतल और खून का-सा मजा िमलता था। अब पॉँसा पलट गया था। पहले वह सबकी थी, कोई उसका न था; अब सब उसके थे, वह िकसी की न थी। उसे िजसे चीज की तलाश थी, वह कही न िमलती थी। िकसी मे वह िहममत न थी जो उससे कहता, आज से तू मेरी है। उस पर िदल नयौछावर करने वाले बहुतेरे थे , सचचा साथी एक भी न था। असल मे उन सरिफरो को वह बहुत नीची िनगाह से देखती थी। कोई उसकी मुहबबत के कािबल नही था। ऐसे पसत-िहममतो को वह िखलौनो से जयादा महतव न देना चाहती थी, िजनका मारना और िजलाना एक मनोरंजन से अिधक कुछ नही। िजस वकत़ कोई नौजवान िमठाइयो के थाल और फूलो के हार िलये उसके सामने खडा हो जाता तो उसका जी चाहता; मुंह नोच लूँ। उसे वह चीजे कालकूट हलाहल जैसी लगती। उनकी जगह वह रखी रोिटयॉँ चाहती थी, सचचे पेम मे डू बी हुई। गहनो और अशिफरयो के ढेर उसे िबचछू के डंक जैसे लगते। उनके बदले वह सचची, िदल के भीतर से िनकली हुई बाते चाहती थी िजनमे पेम की गंध और सचचाई का गीत हो। उसे रहने को महल िमलते थे, पहनने को रेशम, खाने को एक-से-एक वयंजन, पर उसे इन चीजो की आकाका न थी। उसे आकाका थी, फूस के झोपडे, मोटे-झोटे सूखे खाने। उसे पाणघातक िसिदयो से पाणपोषक िनषेध कही जयादा िपय थे, खुली हवा के मुकाबले मे बंद िपंजरा कही जयादा चाहेता ! एक िदन एक परदेसी गाव मे आ िनकला। बहुत ही कमजोर, दीन-हीन आदमी था। एक पेड के नीचे सतू खाकर लेटा। एकाएक मुनी उधर से जा िनकली। मुसािफर को देखकर बोली—कहा जाओगे ? मुसािफर ने बेरखी से जवाब िदया- जहनुम ! मुनी ने मुसकराकर कहा- कयो, कया दुिनया मे जगह नही ? ‘औरो के िलए होगी, मेरे िलए नही।’ ‘िदल पर कोई चोट लगी है ?’ मुसािफर ने जहरीली हंसी हंसकर कहा- बदनसीबो की तकदीर मे और कया है ! रोनाधोना और डू ब मरना, यही उनकी िजनदगी का खुलासा है। पहली दो मंिजल तो तय कर चुका, अब तीसरी मंिजल और बाकी है, कोई िदन वह पूरी हो जायेगी; ईशर ने चाहा तो बहुत जलद। यह एक चोट खाये हुए िदल के शबद थे। जरर उसके पहलू मे िदल है। वना यह ददर कहा से आता ? मुनी बहुत िदनो से िदल की तलाश कर रही थी बोली—कही और वफा की तलाश कयो नही करते ? मुसािफर ने िनराशा के भव से उतर िदया—तेरी तकदीर मे नही, वना मेरा कया बनाबनाया घोसला उजड जाता ? दौलत मेरे पास नही। रप-रंग मेरे पास नही, िफर वफा की देवी मुझ पर कयो मेहरबान होने लगी ? पहले समझता था वफा िदल के बदले िमलती है, अब मालूम हुआ और चीजो की तरह वह भी सोने-चॉँदी से खरीदी जा सकती है। मुनी को मालूम हुआ, मेरी नजरो ने धोखा खाया था। मुसािफर बहुत काला नही, िसफर सॉँवला। उसका नाक-नकशा भी उसे आकषरक जान पडा। बोली—नही, यह बात नही, तुमहारा पहला खयाल ठीक था।

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यह कहकर मुनी चली गयी। उसके हृदय के भाव उसके संयम से बाहर हो रहे थे। मुसािफर िकसी खयाल मे डू ब गया। वह इस सुनदरी की बातो पर गौर कर रहा था, कया सचमुच यहा वफा िमलेगी ? कया यहॉँ भी तकदीर धोखा न देगी ? मुसािफर ने रात उसी गॉँव मे काटी। वह दस ू रे िदन भी न गया। तीसरे िदन उसने एक फूस का झोपडा खडा िकया। मुनी ने पूछा—यह झोपडा िकसके िलए बनाते हो ? मुसािफर ने कहा—िजससे वफा की उममीद है। ‘चले तो न जाओगे?’ ‘झोपडा तो रहेगा।’ ‘खाली घर मे भूत रहते है।’ ‘अपने पयारे का भूत ही पयारा होता है।’ दस ू रे िदन मुनी उस झोपडे मे रहने लगी। लोगो को देखकर ताजजुब होता था। मुनी उस झोपडे मे नही रह सकती। वह उस भोले मुसािफर को जरर द़गा देगी, यह आम खयाल था, लेिकन मुनी फूली न समाती थी। वह न कभी इतनी सुनदर िदखायी पडी थी, न इतनी खुश। उसे एक ऐसा आदमी िमल गया था, िजसके पहलू मे िदल था। 2 िकन मुसािफर को दस ू रे िदन यह िचनता हुई िक कही यहा भी वही अभागा िदन न देखना पडे। रप मे वफा कहॉँ ? उसे याद आया, पहले भी इसी तरह की बाते हुई थी, ऐसी ही कसम खायी गयी थी, एक दस ू रे से वादे िकए गए थे। मगर उन कचचे धागो को टू टते िकतनी देर लगी ? वह धागे कया िफर न टू ट जाएंगे ? उसके किणक आननद का समय बहुत जलद बीत गया और िफर वही िनराशा उसके िदल पर छा गयी। इस मरहम से भी उसके िजगर का जखम न भरा। तीसरे रोज वह सारे िदन उदास और िचिनतत बैठा रहा और चौथे रोज लापता हो गया। उसकी यादगार िसफर उसकी फूस की झोपडी रह गयी। मुनी िदन-भर उसकी राह देखती रही। उसे उममीद थी िक वह जरर आयेगा। लेिकन महीनो गुजर गये और मुसािफर न लौटा। कोई खत भी न आया। लेिकन मुनी को उममीद थी, वह जरर आएगा। साल बीत गया। पेडो मे नयी-नयी कोपले िनकली, फूल िखले, फल लगे, काली घटाएं आयी, िबजली चमकी, यहा तक िक जाडा भी बीत गया और मुसािफर न लौटा। मगर मुनी को अब भी उसके आने की उममीद थी; वह जरा भी िचिनतत न थी, भयभीत न थी वह िदन-भर मजदरू ी करती और शाम को झोपडे मे पड रहती। लेिकन वह झोपडा अब एक सुरिकत िकला था, जहा िसरिफरो के िनगाह के पाव भी लंगडे हो जाते थे। एक िदन वह सर पर लकडी का गटा िलए चली आती थी। एक रिसयो ने छेडखानी की—मुनी, कयो अपने सुकुमार शरीर के साथ यह अनयाय करती हो ? तुमहारी एक कृपा दृिष पर इस लकडी के बराबर सोना नयौछावर कर सकता हूँ। मुनी ने बडी घृणा के साथ कहा—तुमहारा सोना तुमहे मुबारक हो, यहा अपनी मेहनत का भरोसा है। ‘कयो इतना इतराती हो, अब वह लौटकर न आयेगा।’ मुनी ने अपने झोपडे की तरफ इशारा करके कहा—वह गया कहा जो लौटकर आएगा ? मेरा होकर वह िफर कहा जा सकता है ? वह तो मेरे िदल मे बैठा हुआ है ! इसी तरह एक िदन एक और पेमीजन ने कहा—तुमहारे िलए मेरा महल हािजर है। इस टू ट-े फूटे झोपडे मे कयो पडी हो ? मुनी ने अिभमान से कहा—इस झोपडे पर एक लाख महल नयौछावर है। यहा मैने वह चीज पाई है, जो और कही न िमली थी और न िमल सकती है। यह झोपडा नही है, मेरे पयारे का िदल है !

ले

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इस झोपडे मे मुनी ने सतर साल काटे। मरने के िदन तक उसे मुसािफर के लौटने की उममीद थी, उसकी आिखरी िनगाहे दरवाजे की तरफ लगी हुई थी। उसके खरीदारो मे कुछ तो मर गए, कुछ िजनदा है, मगर िजस िदन से वह एक की हो गयी, उसी िदन से उसके चेहरे पर दीिपत िदखाई पडी िजसकी तरफ ताकते ही वासना की आंखे अंधी हो जाती। खुदी जब जाग जाती है तो िदल की कमजोिरया उसके पास आते डरती है। -‘खाके परवाना’ से

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पपपप पपपप िदन, कई घणटे और कई िमनट की लगातार और अनथक दौड-धूप के बाद तीनमै सौआिखरपैसठअपनी मंिजल पर धड से पहुँच गया। बडे बाबू के दशरन हो गए। िमटी के

गोले ने आग के गोले का चकर पूरा कर िलया। अब तो आप भी मेरी भूगोल की िलयाकत के कायल हो गए। इसे रपक न समिझएगा। बडे बाबू मे दोपहर के सूरज की गमी और रोशनी थी और मै कया और मेरी िबसात कया, एक मुठी खाक। बडे बाबू मुझे देखकर मुसकराये। हाय, यह बडे लोगो की मुसकराहट, मेरा अधमरा-सा शरीर कापते लगा। जी मे आया बडे बाबू के कदमो पर िबछ जाऊँ। मै कािफर नही, गािलब का मुरीद नही, जनत के होने पर मुझे पूरा यकीन है, उतरा ही पूरा िजतना अपने अंधेरे घर पर। लेिकन फिरशते मुझे जनत ले जाने के िलए आए तो भी यकीनन मुझे वह जबरदसत खुशी न होती जो इस चमकती हुई मुसकराहट से हुई। आंखो मे सरसो फूल गई। सारा िदल और िदमाग एक बगीचा बन गया। कलपना ने िमस के ऊंचे महल बनाने शुर कर िदय। सामने कुिसरयो, पदो और खस की टिटयो से सजासजाया कमरा था। दरवाजे पर उममीदवारो की भीड लगी हुई थी और ईजािनब एक कुसी पर शान से बैठे हुए सबको उसका िहससा देने वाले खुदा के दुिनयाबी फजर अदा कर रहे थे। नजर-िमयाज का तूफान बरपा था और मै िकसी तरफ आंख उठाकर न देखता था िक जैसे मुझे िकसी से कुछ लेना-देना नही। अचानक एक शेर जैसी गरज ने मेरे बनते हुए महल मे एक भूचाल-सा ला िदया—कया काम है? हाय रे, ये भोलापन ! इस पर सारी दुिनया के हसीनो का भोलापन और बेपरवाही िनसार है। इस डयाढी पर माथा रगडते-रगडते तीने सौ पैसठ िदन, कई घणटे और कई िमनट गुजर गए। चौखट का पतथर िघसकर जमीन से िमल गया। ईद ू िबसाती की दुकान के आधे िखलौने और गोवदरन हलवाई की आधी दुकान इसी डयौढी की भेट चढ गयी और मुझसे आज सवाल होता है, कया काम है ! मगर नही, यह मेरी जयादती है सरासर जुलम। जो िदमाग बडे-बडे मुलकी और माली तमदुनी मसलो मे िदन-रात लगा रहता है, जो िदमाग डाकूमेटो, सरकुलरो, परवानो, हुकमनामो, नकशो वगैरह के बोझ से दबा जा रहा हो, उसके नजदीक मुझ जैसे खाक के पुतले की हसती ही कया। मचछर अपने को चाहे हाथी समझ ले पर बैल के सीग को उसकी कया खबर। मैने दबी जबान मे कहा—हुजूर की कदमबोसी के िलए हािजर हुआ। बडे बाबू गरजे—कया काम है? अबकी बार मेरे रोएं खडे हो गए। खुदा के फजल से लहीम-शहीम आदमी हूँ, िजन िदनो कालेज मे था, मेरे डील-डौल और मेरी बहादुरी और िदलेरी की धूम थी। हाकी टीम का कपतान, फुटवाल टीम का नायब कपतान और िककेट का जनरल था। िकतने ही गोरो के िजसम पर अब भी मेरी बहादुरी के दाग बाकी होगे। मुमिकन है, दो-चार अब भी बैसािखया िलए चलते या रेगते हो। ‘बमबई कािनकल’ और ‘टाइमस’ मे मेरे गेदो की धूम थी। मगर इस वकत बाबू साहब की गरज सुनकर मेरा शरीर कापने लगा। कापते हुए बोला—हुजूर की कदमबोसी के िलए हािजर हुआ। बडे बाबू ने अपना सलीपरदार पैर मेरी तरफ बढाकर कहा—शौक से लीिजए, यह कदम हािजर है, िजतने बोसे चाहे लीिजए, बेिहसाब मामले है, मुझसे कसम ले लीिजए जो मै िगनूँ, जब तक आपका मुंह न थक जाए, िलए जाइए ! मेरे िलए इससे बढकर खुशनसीबी का कया मौका होगा ? औरो को जो बात बडे जप-तप, बडे संयम-वरत से िमलती है, वह मुझे बैठेिबठाये बगैर हड-िफटकरी लगाए हािसल हो गयी। वललाह, हूं मै भी खुशनसीब । आप अपने दोसत-अहबाब, आतमीय-सवजन जो हो, उन सबको लाये तो और भी अचछा, मेरे यहा सबको छू ट है !

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हंसी के पदे मे यह जो जुलम बडे बाबू कर रहे थे उस पर शायद अपने िदल मे उनको नाज हो। इस मनहूस तकदीर का बुरा हो, जो इस दरवाजे का िभखारी बनाए हुए है। जी मे तो आया िक हजरत के बढे हुए पैर को खीच लूं और आपको िजनदगी-भर के िलए सबक दे दँू िक बदनसीबो से िदललगी करने का यह मजा है मगर बदनसीबी अगर िदल पर जब न कराये , िजललत का अहसास न पैदा करे तो वह बदनसीबी कयो कहलाए। मै भी एक जमाने मे इसी तरह लोगो को तकलीफ पहुँचाकर हंसता था। उस वकत इन बडे बाबुओं की मेरी िनगाह मे कोई हसती न थी। िकतने ही बडे बाबुओं को रलाकर छोड िदया। कोई ऐसा पोफेसर न था, िजसका चेहरा मेरी सूरत देखते ही पीला न पड जाता हो। हजार-हजार रपया पाने वाले पोफेसरो की मुझसे कोर दबकी थी। ऐसे कलको को मै समझता ही कया था। लेिकन अब वह जमाना कहा। िदल मे पछताया िक नाहक कदमबोसी का लफज जबान पर लाया। मगर अपनी बात कहना जररी था। मै पका इरादा करके अया था िक उस डयौढी से आज कुछ लेकर ही उठूंगा। मेरे धीरज और बडे बाबू के इस तरह जान-बूझकर अनजान बनने मे रससाकशी थी। दबी जबान से बोला—हुजूर, गेजुएट हूँ। शुक है, हजार शुक है, बडे बाबू हंसे। जैसे हाडी उबल पडी हो। वह गरज और वह करखत आवाज न थी। मेरा माथा रगडना आिखर कहा तक असर न करता। शायद असर को मेरी दुआ से दुशमनी नही। मेरे कान बडी बेकरारी से वे लफज सुनने के िलए बेचैन हो रहे थे िजनसे मेरी रह को खुशी होगी। मगर आह, िजतनी मायूसी इन कानो को हुई है उतनी शायद पहाड खोदने वाले फरहाद को भी न हुई होगी। वह मुसकराहट न थी, मेरी तकदीर की हंसी थी। हुजूर ने फरमाया—बडी खुशी की बात है, मुलक और कौम के िलए इससे जयादा खुशी की बात और कया हो सकती है। मेरी िदली तमना है, मुलक का हर एक नौजवान गेजुएट हो जाए। ये गेजुएट िजनदगी के िजस मैदान मे जाय, उस मैदान को तरकी ही देगा—मुलकी, माली, तमदुनी (मजहबी) गरज िक हर एक िकसम की तहरीक का जनम और तरकी गेजुएटो ही पर मुनहसर है। अगर मुलक मे गेजुएटो का यह अफसोसनाक अकाल न होता तो असहयोग की तहरीक कयो इतनी जलदी मुदा हो जाती ! कयो बने हुए रंगे िसयार, दगाबाज जरपसत लीडरो को डाकेजनी के ऐसे मौके िमलते! तबलीग कयो मुबिललगे अले हुससलाम की इललत बनती! गेजुएट मे सच और झूठ की परख, िनगाह का फैलाव और जाचने-तोलने की काबिलयत होना जररी बात है। मेरी आंखे तो गेजुएटो को देखकर नशे के दजे तक खुशी से भर उठती है। आप भी खुदा के फजल से अपनी िकसम की बहुत अचछी िमसाल है, िबलकुल आप-टू -डेट। यह शेरवानी तो बरकत एणड को की दुकान की िसली हुई होगी। जूते भी डासन के है। कयो न हो। आप लोगो ने कौम की िजनदगी के मैयार को बहुत ऊंचा बना िदया है और अब वह बहुत जलद अपनी मंिजल पर पहँुचेगी। बलैकबडर पेन भी है, वेसट एणड की िरसटवाच भी है। बेशक अब कौमी बेडे को खवाजा िखजर की जररत भी नही। वह उनकी िमनत न करेगा। हाय तकदीर और वाय तकदीर ! अगर जानता िक यह शेरवानी और फाउंटेनपेन और िरसटवाज यो मजाक का िनशाना बनेगी, तो दोसतो का एहसान कयो लेता। नमाज बखशवाने आया था, रोजे गले पडे। िकताबो मे पढा था, गरीबी की हुिलया ऐलान है अपनी नाकामी का, नयौता देना है अपनी िजललत को। तजुबा भी यही कहता था। चीथडे लगाये हुए िभखमंगो को िकतनी बेददी से दुतकारता हूँ लेिकन जब कोई हजरत सूफी-साफी बने हुए, लमबे-लमबे बाल कंधो पर िबखेरे, सुनहरा अमामा सर पर बाका-ितरछा शान से बाधे, संदली रंग का नीचा कुता पहने, कमरे मे आ पहुँचते है तो मजबूर होकर उनकी इजजत करनी पडती है और उनकी पाकीजगी के बारे मे हजारो शुबहे पैदा होने पर भी छोटी-छोटी रकम जो उनकी नजर की जाती हे, वह एक दजरन िभखािरयो को अचछा खाना िखलाने के सामान इकटा कर देती। पुरानी मसल है—भेस से ही भीख िमलती है। पर आज यह बात गलत सािबत हो गयी । अब बीवी सािहबा की वह तमबीह याद आयी जो उसने चलते वकत दी थी—कयो बेकार अपनी

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बइजजती कराने जा रहे हो। वह साफ समझेगे िक यह मागे-जाचे का ठाठ है। ऐसे रईस होते तो मेरे दरवाजे पर आते कयो। उस वकत मैने इस तमबीह को बीवी की कमिनगाह और उसका गंवारपन समझा था। पर अब मालूम हुआ िक गंवािरने भी कभी-कभी सूझ की बाते कहते है। मगर अब पछताना बेकार है। मैने आिजजी से कहा—हुजूर, कही मेरी भी परविरश फरमाये। बडे बाबू ने मेरी तरफ इस अनदाज से देखा जैसे मै िकसी दस ू री दुिनया का कोई जानवर हूँ और बहुत िदलासा देने के लहजे मे बोले—आपकी परविरश खुदा करेगा। वही सबका रजजाक है, दुिनया जब से शुर हुई तब से तमाम शायर, हकीम और औिलया यही िसखाते आये है िक खुदा पर भरोसा रख और हम है िक उनकी िहदायत को भूल जाते है। लिकन खैर, मै आपको नेक सलाह देने मे कंजूसी न करँगा। आप एक अखबार िनकाल लीिजए। यकीन मािनए इसके िलए बहुत जयादा पढे-िलखे होने की जररत नही और आप तो खुदा के फजल से गेजुएट है।, सवािदष ितलाओं और सतमभन-बिटयो के नुसखे िलिखए। ितबबे अकबर मे आपको हजारो नुसखे िमलेगे। लाइबेरी जाकर नकल कर लाइए और अखबार मे नये नाम से छािपए। कोकशासत तो आपने पढा ही होगा अगर न पढा हो तो एक बार पढ जाइए और अपने अखबार मे शादी के मजो के तरीके िलिखए। कामेिनदय के नाम िजंतने जयादा आ सके, बेहतर है िफर देिखए कैसे डाकटर और पोफेसर और िडपटी कलेकटर आपके भकत हो जाते है। इसका खयाल रहे िक यह काम हकीमाना अनदाज से िकया जाए। बयोपारी और हकीमाना अनदाज मे थोडा फकर है, बयोपारी िसफर अपनी दवाओं की तारीफ करता है, हकीम पिरभाषाओं और सूिकतयो को खोलकर अपने लेखो को इलमी रंग देता है। बयोपारी की तारीफ से लोग िचढते है, हकीम की तारीफ भरोसा िदलाने वाली होती है। अगर इस मामले मे कुछ समझने -बूझने की जररत हो तो िरसाला ‘दरवेश’ हािजर है अगर इस काम मे आपको कुछ िदकत मालूम होती हो, तो सवामी शदाननद की िखदमत मे जाकर शुिद पर आमादगी जािहर कीिजए—िफर देिखए आपकी िकतनी खाितर-तवाजो होती है। इतना समझाये देता हूँ िक शुिद के िलए फौरन तैयार न हो जाइएगा। पहले िदन तो दो-चार िहनदू धमर की िकताबे माग लाइयेगा। एक हफते के बाद जाकर कुछ एतराज कीिजएगा। मगर एतराज ऐसे हो िजनका जवाब आसानी से िदया जा सके इससे सवामीजी को आपकी छान-बीन और जानने की खवािहश का यकीन हो जायेगा। बस, आपकी चादी है। आप इसके बाद इसलाम की मुखािलफत पर दो-एक मजमून या मजमूनो का िसलिसला िकसी िहनद ू िरसाले मे िलख देगे तो आपकी िजनदगी और रोटी का मसला हल हो जाएगा। इससे भी सरल एक नुसखा है— तबलीगी िमशन मे शरीक हो जाइए, िकसी िहनदू औरत, खासकर नौजवान बेवा, पर डोरे डािलए। आपको यह देखकर हैरत होगी िक वह िकतनी आसानी से आपसे मुहबबत करने लग जाती है। आप उसकी अंधेरी िजनदगी के िलए एक मशाल सािबत होगे। वह उज नही करती, शौक से इसलाम कबूल कर लेगी। बस, अब आप शहीदो मे दािखल हो गए। अगर जरा एहितयात से काम करते रहे तो आपकी िजनदगी बडे चैन से गुजरेगी। एक ही खेवे मे दीनोदुिनया दोनो ही पार है। जनाब लीडर बन जाएंगे वललाह, एक हफते मे आपका शुमार नामीगरामी लोगो मे होने लगेगा, दीन के सचचे पैरोकार। हजारो सीधे-सादे मुसलमान आपको दीन की डू बती हुई िकशती का मललाह समझेगे। िफर खुदा के िसवा और िकसी को खबर न होगी िक आपके हाथ कया आता है और वह कहा जाता है और खुदा कभी राज नही खोला करता, यह आप जानते ही है। ताजजुब है िक इन मौको पर आपकी िनगाह कयो नही जाती ! मै तो बुडढा हो गया और अब कोई नया काम नही सीख सकता, वना इस वकत लीडरो का लीडर होता। इस आग की लपट जैसे मजाक ने िजसम मे शोले पैदा कर िदये। आंखो से िचनगािरया िनकलने लगी। धीरज हाथ से छू टा जा रहा था। मगर कहरे दरवेश बर जाने दरवेश(िभखारी का गुससा अपनी जान पर) के मुतािबक सर झुकाकर खडा रहा। िजतनी दलीले िदमाग मे कई िदनो से चुन-चुनकर रखी थी, सब धरी रह गयी। बहुत सोचने पर भी कोई नया पहलू

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धयान मे न आया। यो खुदा के फजल से बेवकूफ या कुनदजेहन नही हूँ, अचछा िदमाग पाया है। इतने सोच-िवचार से कोई अचछी-सी गजल हो जाती। पर तबीयत ही तो है, न लडी। इतफाक से जेब मे हाथ डाला तो अचानक याद आ गया िक िसफािरशी खतो का एक पोथा भी साथ लाया हूँ। रोब का िदमाग पर कया असर पडता है इसका आज तजुबा हो गया। उममीद से चेहरा फूल की तरह िखल उठा। खतो का पुिलनदा हाथ मे लेकर बोला—हुजूर, यह चनद खत है इनहे मुलािहजा फरमा ले। बडे बाबू ने बणडल लेकर मेज पर रख िदया और उस पर एक उडती हुई नजर डालकर बोले—आपने अब तक इन मोितयो को कयो िछपा रकखा था ? मेरे िदल मे उममीद की खुशी का एक हंगामा बरपा हो गया। जबान जो बनद थी, खुल गयी। उमंग से बोला—हुजूर की शान-शौकत ने मुझ पर इतना रोब डाल िदया और कुछ ऐसा जादू कर िदया िक मुझे इन खतो की याद न रही। हुजूर से मै िबना नमक-िमचर लगाये सचसच कहता हूँ िक मैने इनके िलए िकसी तरह की कोिशश या िसफािरश नही पहुँचायी। िकसी तरह की दौड-भाग नही की। बडे बाबू ने मुसकराकर कहा—अगर आप इनके िलए जयादा से जयादा दौड-भाग करने मे भी अपनी ताकत खचर करते तो भी मै आपको इसके िलए बुरा-भला न कहता। आप बेशक बडे खुशनसीब है िक यह नायाब चीज आपको बेमाग िमल गई, इसे िजनदगी के सफर का पासपोटर समिझए। वाह, आपको खुदा के फजल से एक एक से एक कददान नसीब हुए। आप जहीन है, सीधे-सचचे है, बेलौस है, फमाबरदार है। ओफफोह, आपके गुणो की तो कोई इनतहा ही नही है। कसम खुदा की, आपमे तो तमाम भीतरी और बाहरी कमाल भरे हुए है। आपमे सूझ-बूझ गमभीरता, सचचाई, चौकसी, कुलीनता, शराफत, बहादुरी, सभी गुण मौजूद है। आप तो नुमाइश मे रखे जाने के कािबल मालूम होते है िक दुिनया आपको हैरत की िनगाह से देखे तो दातो तले उंगली दबाये। आज िकसी भले का मुंह देखकर उठा था िक आप जैसे पाकीजा आदमी के दशरन हुए। यह वे गुण है जो िजनदगी के हर एक मैदान मे आपको शोहरत की चोटी तक पहुँचा सकते है। सरकारी नौकरी आप जैसे गुिणयो की शान के कािबल नही। आपको यह कब गवारा होगा। इस दायरे मे आते ही आदमी िबलकुल जानवर बन जाता है। बोिलए, आप इसे मंजूर कर सकते है ? हरिगज नही। मैने डरते-डरते कहा—जनाब, जरा इन लफजो को खोलकर समझा दीिजए। आदमी के जानवर बनजाने से आपकी कया मंशा है? बडे बाबू ने तयोरी चढाते हुए कहा—या तो कोई पेचीदा बात न थी िजसका मतलब खोलकर बतलाने की जररत हो। तब तो मुझे बात करने के अपने ढंग मे कुछ तरमीम करनी पडेगी। इस दायरे के उममीदवारो के िलए सबसे जररी और लािजमी िसफत सूझ-बूझ है। मै नही कह सकता िक मै जो कुछ कहना चाहता हूँ, वह इस लफज से अदा होता है या नही। इसका अंगेजी लफज है इनटुइशन—इशारे के असली मतलब को समझना। मसलन अगर सरकार बहादुर यानी हािकम िजला को िशकायत हो िक आपके इलाके मे इनकमटैकस कम वसूल होता है तो आपका फजर है िक उसमे अंधाधुनध इजाफा करे। आमदनी की परवाह न करे। आमदनी का बढना आपकी सूझबूझ पर मुनहसर है! एक हलकी-सी धमकी काम कर जाएगी और इनकमटैकस दुगुना-ितगुना हो जाएगा। यकीनन आपको इस तरह अपना जमीर (अनत:करण) बेचना गवारा न होगा। मैने समझ िलया िक मेरा इमतहान हो रहा है, आिशको जैसे जोश और सरगमी से बोला —मै तो इसे जमीर बेचना नही समझता, यह तो नमक का हक है। मेरा जमीर इतना नाजुक नही है। बडे बाबू ने मेरी तरफ कददानी की िनगाह से देखकर कहा—शाबाश, मुझे तुमसे ऐसे ही जवाब की उममीद थी। आप मुझे होनहार मालूम होते है। लेिकन शायद यह दस ू री शतर

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आपको मंजूर न हो। इस दायरे के मुरीदो के िलए दस ू री शतर यह है िक वह अपने को भूल जाएं। कुछ आया आपकी समझ मे ? मैने दबी जबान मे कहा—जनाब को तकलीफ तो होगी मगर जरा िफर इसको खोलकर बतला दीिजए। बडे बाबू ने तयोिरयो पर बल देते हुए कहा—जनाब, यह बार-बार का समझाना मुझे बुरा मालूम होता है। मै इससे जयादा आसान तरीके पर खयालो को जािहर नही कर सकता। अपने को भूल जाना बहुत ही आम मुहावरा है। अपनी खुदी को िमटा देना, अपनी शिखसयत को फना कर देना, अपनी पसरनािलटी को खतम कर देना। आपकी वजा-कजा से आपके बोलने , बात करने के ढंग से, आपके तौर-तरीको से आपकी िहिनदयत िमट जानी चािहए। आपके मजहबी, अखलाकी और तमदुनी असरो का िबलकुल गायब हो जाना जरर है। मुझे आपके चेहरे से मालूम हो रहा है िक इस समझाने पर भी आप मेरा मतलब नही समझ सके। सुिनए, आप गािलबन मुसलमान है। शायद आप अपने अकीदो मे बहुत पके भी हो। आप नमाज और रोजे के पाबनद है? मैने फख से कहा—मै इन चीजो का उतना ही पाबनद हूँ िजतना कोई मौलवी हो सकता है। मेरी कोई नमाज कजा नही हुई। िसवाय उन वकतो के जब मै बीमार था। बडे बाबू ने मुसकराकर कहा—यह तो आपके अचछे अखलाक ही कह देते है। मगर इस दायरे मे आकर आपको अपने अकीदे और अमल मे बहुत कुछ काट-छात करनी पडेगी। यहा आपका मजहब मजहिबयत का जामा अिखतयार करेगा। आप भूलकर भी अपनी पेशानी को िकसी िसजदे मे न झुकाएं, कोई बात नही। आप भूलकर भी जकात के झगडे मे न फूसे , कोई बात नही। लेिकन आपको अपने मजहब के नाम पर फिरयाद करने के िलए हमेशा आगे रहना और दस ू रो को आमादा करना होगा। अगर आपके िजले मे दो िडपटी कलकटर िहनदू है और मुसलमान िसफर एक, तो आपका फजर होगा िक िहज एकसेलेसी गवनरर की िखदमत मे एक डेपुटेशन भेजने के िलए कौम के रईसो मे आमादा करे। अगर आपको मालूम हो िक िकसी मयुिनिसपैिलटी ने कसाइयो को शहर से बाहर दक ू ान रखने की तजवीज पास कर दी है तो आपका फजर होगा िक कौम के चौधिरयो को उस मयुिनिसपैिलटी का िसर तोडने के िलए तहरीक करे। आपको सोते-जागते, उठते-बैठते जात-पॉँत का राग अलापना चािहए। मसलन इमतहान के नतीजो मे अगर आपको मुसलमान िवदािथरयो की संखया मुनािसब से कम नजर आये तो आपको फौरन चासकर के पास एक गुमनाम खत िलख भेजना होगा िक इस मामले मे जरर ही सखती से काम िलया गया है। यह सारी बाते उसी इनटुइशनवाली शतर के भीतर आ जाती है। आपको साफ-साफ शबदो मे या इशारो से यह काम करने से िलए िहदायत न की जाएगी। सब कुछ आपकी सूझ-सूझ पर मुनहसर होगा। आपमे यह जौहर होगा तो आप एक िदन जरर ऊंचे ओहदे पर पहुँचेगे। आपको जहा तक मुमिकन हो, अंगेजी मे िलखना और बोलना पडेगा। इसके बगैर हुकाम आपसे खुश न होगे। लेिकन कौमी जबान की िहमायत और पचार की सदा आपकी जबान से बराबर िनकलती रहनी चािहए। आप शौक से अखबारो का चनदा हजम करे, मंगनी की िकताबे पढे चाहे वापसी के वकत िकताब के फट-िचंथ जाने के कारण आपको माफी ही कयो न मागनी पडे, लेिकन जबान की िहमायत बराबर जोरदार तरीके से करते रिहए। खुलासा यह िक आपको िजसका खाना उसका गाना होगा। आपको बातो से, काम से और िदल से अपने मािलक की भलाई मे और मजबूती से उसको जमाये रखने मे लगे रहना पडेगा। अगर आप यह खयाल करते हो िक मािलक की िखदमत के जिरये कौम की िखदमत की करं गा तो यह झूठ बात है, पागलपन है, िहमाकत है। आप मेरा मतलब समझ गये होगे। फरमाइए, आप इस हद तक अपने को भूल सकते है? मुझे जवाब देने मे जरा देर हुई। सच यह है िक मै भी आदमी हूँ और बीसवी सदी का आदमी हूँ। मै बहुत जागा हुआ न सही, मगर िबलकुल सोया हुआ भी नही हूँ, मै भी अपने मुलक और कौम को बुलनदी पर देखना चाहता हूँ। मैने तारीख पढी है और उससे इसी नतीजे पर

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पहुँचा हूँ िक मजहब दुिनया मे िसफर एक है और उसका नाम है—ददर। मजहब की मौजूदा सूरत धडेबदं ी के िसवाय और कोई हैिसयत नही रखती। खतने या चोटी से कोई बदल नही जाता। पूजा के िलए किलसा, मसिजद, मिनदर की मै िबलकुल जररत नही समझता। हॉँ, यह मानता हूँ िक घमणड और खुदगरजी को दबाये रखने के िलए कुछ करना जररी है। इसिलए नही िक उससे मुझे जनत िमलेगी या मेरी मुिकत होगी, बिलक िसफर इसिलए िक मुझे दस ू रो के हक छीनने से नफरत होगी। मुझमे खुदी का खासा जुज मौजूद है। यो अपनी खुशी से किहए तो आपकी जूितयॉँ सीधी करँ लिकन हुकूमत की बरदाशत नही। महकूम बनना शमरनाक समझता हूँ। िकसी गरीब को जुलम का िशकार होते देखकर मेरे खून मे गमी पैदा हो जाती है। िकसी से दबकर रहने से मर जाना बेहतर समझता हूँ। लेिकन खयाल हालतो पर तो फतह नही पा सकता। रोजी िफक तो सबसे बडी। इतने िदनो के बाद बडे बाबू की िनगाहे करम को अपनी ओर मुडता देखकर मै इसके िसवा िक अपना िसर झुका दँू , दस ू रा कर ही कया सकता था। बोला- जनाब, मेरी तरफ से भरोसा रकखे। मािलक की िखदमत मे अपनी तरफ से कुछ उठा न रकखूँगा। ‘गैरत को फना कर देना होगा।’ ‘मंजूर।’ ‘शराफत के जजबो को उठाकर ताक पर रख देना होगा।’ ‘मंजूर।’ ‘मुखिबरी करनी पडेगी?’ ‘मंजूर।’ ‘तो िबिसमललाह, कल से आपका नाम उममीदवारो की फेहिरसत मे िलख िदया जायेगा ।’ मैने सोचा था कल से कोई जगह िमल जायेगी। इतनी िजललत कबूल करने के बाद रोजी की िफक से तो आजाद हो जाऊँगा। अब यह हकीकत खुली। बरबस मुंह से िनकला —और जगह कब तक िमलेगी? बडे बाबू हंसे, वही िदल दुखानेवाली हंसी िजसमे तौहीन का पहलू खास था—जनाब, मै कोई जयोितषी नही, कोई फकीर-दरवेश नही, बेहतर है इस सवाल का जवाब आप िकसी औिलया से पूछे। दसतरखान िबछा देना मेरा काम है। खाना आयेगा और वह आपके हलक मे जायेगा, यह पेशीनगोई मै नही कर सकता। मैने मायूसी के साथ कहा—मै तो इससे बडी इनायत का मुनतिजर था। बडे बाबू कुसी से उठकर बोले—कसम खुदा की, आप परले दजे के कूडमगज आदमी है। आपके िदमाग मे भूसा भरा है। दसतरखान का आ जाना आप कोई छोटी बात समझते है? इनतजार का मजा आपकी िनगाह मे कोई चीज ही नही? हालािक इनतजार मे इनसान उमरे गुजार सकता है। अमलो से आपका पिरचय हो जाएगा। मामले िबठाने , सौदे पटाने के सुनहरे मौके हाथ आयेगे। हुकाम के लडके पढाइये। अगर गंडे-तावीज का फन सीख लीिजए तो आपके हक मे बहुत मुफीद हो। कुछ हकीमी भी सीख लीिजए। अचछे होिशयार सुनारो से दोसती पैदा िकिजए,कयोिक आपको उनसे अकसर काम पडेगा। हुकाम की औरते आप ही के माफरत अपनी जररते पूरी करायेगी। मगर इन सब लटको से जयादा कारगर एक और लटका है, अगर वह हुनर आप मे है, तो यकीनन आपके इनतजार की मुदत बहुत कुछ कम हो सकती है। आप बडे-बडे हािकमो के िलए तफरीह का सामान जुटा सकते है ! बडे बाबू मेरी तरफ कनिखयो से देखकर मुसकराये। तफरीह के सामान से उनका कया मतलब है, यह मै न समझ सका। मगर पूछते हुए भी डर लगता था िक कही बडे बाबू िबगड न जाएं और िफर मामला खराब हो जाए। एक बेचैनी की-सी हालत मे जमीन की तरफ ताकने लगा।

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बडे बाबू ताड तो गये िक इसकी समझ मे मेरी बात न आयी लेिकन अबकी उनकी तयोिरयो पर बल नही पडे। न ही उनके लहजे मे हमददी की झलक फरमायी—यह तो गैरमुमिकन है िकक आपने बाजार की सैर न की हो। मैने शमाते हुए कहा—नही हुजूर, बनदा इस कूचे को िबलकुल नही जानता। बडे बाबू—तो आपको इस कूचे की खाक छाननी पडेगी। हािकम भी आंख -कान रखते है। िदन-भर की िदमागी थकन के बाद सवभावत: रात को उनकी तिबयत तफरीह की तरफ झुकती है। अगर आप उनके िलए ऑंखो को अचछा लगनेवाले रप और कानो को भानेवाले संगीत का इनतजाम ससते दामो कर सकते है या कर सके तो... मैने िकसी कदर तेज होकर कहा—आपका कहने का मतलब यह है िक मुझे रप की मंडी की दलाली करनी पडेगी ? बडे बाबू—तो आप तेज कयो होते है, अगर अब तक इतनी छोटी-सी बात आप नही समझे तो यह मेरा कसूर है या आपकी अकल का ! मेरे िजसम मे आग लग गयी। जी मे आया िक बडे बाबू को जुजुतसू के दो-चार हाथ िदखाऊँ, मगर घर की बेसरोसामानी का खयाल आ गया। बीवी की इनतजार करती हुई आंखे और बचचो की भूखी सूरते याद आ गयी। िजललत का एक दिरया हलक से नीचे ढकेलते हुए बोला—जी नही, मै तेज नही हुआ था। ऐसी बेअदबी मुझसे नही हो सकती। (आंखो मे आंसू भरकर) जररत ने मेरी गैरत को िमटा िदया है। आप मेरा नाम उममीदवारो मे दजर कर दे। हालात मुझसे जो कुछ करायेगे वह सब करँगा और मरते दम तक आपका एहसानमनद रहूँगा। -‘खाके परवाना’से

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षट के सेवक ने कहा—देश की मुिकत का एक ही उपाय है और वह है नीचो के साथ भाईचारे का सुलूक, पिततो के साथ बराबरी को बताव। दुिनया मे सभी भाई है, कोई नीचा नही, कोई ऊंचा नही। दुिनया ने जयजयकार की—िकतनी िवशाल दृिष है, िकतना भावुक हृदय ! उसकी सुनदर लडकी इिनदरा ने सुना और िचनता के सागर मे डू ब गयी। राषट के सेवक ने नीची जात के नौजवान को गले लगाया। दुिनया ने कहा—यह फिरशता है, पैगमबर है, राषट की नैया का खेवैया है। इिनदरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा। राषट का सेवक नीची जात के नौजवान को मंिदर मे ले गया, देवता के दशरन कराये और कहा—हमारा देवता गरीबी मे है, िजललत मे है ; पसती मे है। दुिनया ने कहा—कैसे शुद अनत:करण का आदमी है ! कैसा जानी ! इिनदरा ने देखा और मुसकरायी। इिनदरा राषट के सेवक के पास जाकर बोली— शदेय िपता जी, मै मोहन से बयाह करना चाहती हूँ। राषट के सेवक ने पयार की नजरो से देखकर पूछा—मोहन कौन है? इिनदरा ने उतसाह-भरे सवर मे कहा—मोहन वही नौजवान है, िजसे आपने गले लगाया, िजसे आप मंिदर मे ले गये, जो सचचा, बहादुर और नेक है। राषट के सेवक ने पलय की आंखो से उसकी ओर देखा और मुँह फेर िलया। -‘पेम चालीसा’ से

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पपपपपप पपपपपप

सा

रे शहर मे िसफर एक ऐसी दुकान थी, जहॉँ िवलायती रेशमी साडी िमल सकती थी। और सभी दुकानदारो ने िवलायती कपडे पर कागेस की मुहर लगवायी थी। मगर अमरनाथ की पेिमका की फरमाइश थी, उसको पूरा करना जररी था। वह कई िदन तक शहर की दुकानोका चकर लगाते रहे, दुगुना दाम देने पर तैयार थे, लेिकन कही सफल-मनोरथ न हुए और उसके तकाजे बराबर बढते जाते थे। होली आ रही थी। आिखर वह होली के िदन कौन-सी साडी पहनेगी। उसके सामने अपनी मजबूरी को जािहर करना अमरनाथ के पुरषोिचत अिभमान के िलए किठन था। उसके इशारे से वह आसमान के तारे तोड लाने के िलए भी ततपर हो जाते। आिखर जब कही मकसद पूरा न हुआ , तो उनहोने उसी खास दुकान पर जाने का इरादा कर िलया। उनहे यह मालूम था िक दुकान पर धरना िदया जा रहा है। सुबह से शाम तक सवयंसेवक तैनात रहते है और तमाशाइयो की भी हरदम खासी भीड रहती है। इसिलए उस दुकान मे जाने के िलए एक िवशेष पकार के नैितक साहस की जररत थी और यह साहस अमरनाथ मे जररत से कम था। पडे-िलखे आदमी थे, राषटीय भावनाओं से भी अपिरिचत न थे, यथाशिकत सवदेशी चीजे ही इसतेमाल करते थे। मगर इस मामले मे बहुत कटर न थे। सवदेशी िमल जाय तो बेहतर वना िवदेशी ही सही- इस उसूल के मानने वाले थे। और खासकर जब उसकी फरमाइश थी तब तो कोई बचाव की सूरत ही न थी। अपनी जररतो को तो वह शायद कुछ िदनो के िलए टाल भी देते, मगर उसकी फरमाइश तो मौत की तरह अटल है। उससे मुिकत कहा ! तय कर िलया िक आज साडी जरर लायेगे। कोई कयो रोके? िकसी को रोकने का कया अिधकर है? माना सवदेशी का इसतेमाल अचछी बात है लेिकन िकसी को जबदरसती करने का कया हक है? अचछी आजादी की लडाई है िजसमे वयिकत की आजादी का इतना बेददी से खून हो ! यो िदल को मजबूत करके वह शाम को दुकान पर पहँुचे। देखा तो पॉँच वालिणटयर िपकेिटंग कर रहे है और दुकान के सामने सडक पर हजारो तमाशाई खडे है। सोचने लगे, दुकान मे कैसे जाएं। कई बार कलेजा मजबूत िकया और चले मगर बरामदे तक जाते-जाते िहममत ने जवाब दे िदया। संयोग से एक जान-पहचान के पिणडतजी िमल गये। उनसे पूछा—कयो भाई, यह धरना कब तक रहेगा? शाम तो हो गयी। पिणडतजी ने कहा—इन िसरिफरो को सुबह और शाम से कया मतलब, जब तक दुकान बनद न हो जाएगी, यहा से न टलेगे। किहए, कुछ खरीदने को इरादा है? आप तो रेशमी कपडा नही खरीदते? अमरनाथ ने िववशता की मुदा बनाकर कहा—मै तो नही खरीदता। मगर औरतो की फरमाइश को कैसे टालूँ। पिणडतजी ने मुसकराकर कहा—वाह, इससे जयादा आसान तो कोई बात नही। औरतो को भी चकमा नही दे सकते? सौ हीले-हजार बहाने है। अमरनाथ—आप ही कोई हीला सोिचए। पिणडतजी—सोचना कया है, यहॉँ रात-िदन यही िकया करते है। सौ-पचास हीले हमेशा जेबो मे पडे रहते है। औरत ने कहा, हार बनवा दो। कहा, आज ही लो। दो-चार रोज के बाद कहा, सुनार माल लेकर चमपत हो गया। यह तो रोज का धनधा है भाई। औरतो का काम फरमाइश करना है, मदो का काम उसे खूबसूरती से टालना है। अमरनाथ—आप तो इस कला के पिणडत मालूम होते है ! पिणडतजी—कया करे भाई, आबर तो बचानी ही पडती है। सूखा जवाब दे तो शिमरदगी अलग हो, िबगडे वह अगल से, समझे, हमारी परवाह ही नही करते। आबर का मामला है। आप एक काम कीिजए। यह तो आपने कहा ही होगा िक आजकल िपकेिटंग है?

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अमरनाथ—हा, यह तो बहाना कर चुका भाई, मगर वह सुनती ही नही, कहती है, कया िवलायती कपडे दुिनया से उठ गये, मुझसे चले हो उडने ! पिणडतजी—तो मालूम होता है, कोई धुन की पकी औरत है। अचछा तो मै एक तरकीब बताऊँ। एक खाली काडर का बकस ले लो, उसमे पुराने कपडे जलाकर भर लो। जाकर कह देना, मै कपडे िलये आता था, वालिणटयरो ने छीनकर जला िदये। कयो, कैसी रेहगी? अमरनाथ—कुछ जंचती नही। अजी, बीस एतराज करेगी, कही पदाफाश हो जाय तो मुफत की शिमरदगी उठानी पडे। पिणडतजी—तो मालूम हो गया, आप बोदे आदमी है और है भी आप कुछ ऐसे ही। यहॉँ तो कुछ इस शान से हीले करते है िक सचचाई की भी उसके आगे धुल हो जाय। िजनदगी यही बहाने करते गुजरी और कभी पकडे न गये। एक तरकीब और है। इसी नमूने का देशी माल ले जाइए और कह दीिजए िक िवलायती है। अमरनाथ—देशी और िवलायती की पहचान उनहे मुझसे और आपसे कही जयादा है। िवलायती ा पर तो जलद िवालयती ाक ा यकीन आयेगा नही , देशी की तो बात ही कया है ! एक खदरपोश महाशय पास ही खडे यह बातचीत सुन रहे थे, बोल उठे— ए साहब, सीधी-सी तो बात है, जाकर साफ कह दीिजए िक मै िवदेशी कपडे न लाऊंगा। अगर िजद करे तो िदन-भर खाना न खाइये, आप सीधे रासते पर आ जायेगी। अमरनाथ ने उनकी तरफ कुछ ऐसी िनगाहो से देखा जो कह रही थी, आप इस कूचे को नही जानते और बोले—यह आप ही कर सकते है, मै नही कर सकता। खदरपोश—कर तो आप भी सकते है लेिकन करना नही चाहते। यहा तो उन लोगो मे से है िक अगर िवदेशी दुआ से मुिकत भी िमलती हो तो उसे ठुकरा दे। अमरनाथ—तो शायद आप घर मे िपकेिटंग करते होगे? खदरपोश—पहले घर मे करके तब बाहर करते है भाई साहब। खदरपोश साहब चले गये तो पिणडतजी बोले—यह महाशय तो तीसमारखा से भी तेज िनकल। अचछा तो एक काम कीिजए। इस दुकान के िपंछवाडे एक दस ू रा दरवाजा है, जरा अंधेरा हो जाय तो उधर चले जाइएगा, दाये-बाये िकसी की तरफ न देिखएगा। अमरनाथ ने पिणडतजी को धनयवाद िदया और जब अंधेरा हो गया तो दुकान के िपछवाडे की तरफ जा पहुँचे। डर रहे थे, कही यहा भी घेरा न पडा हो। लेिकन मैदान खाली था। लपककर अनदर गये, एक ऊंचे दामो की साडी खरीदी और बाहर िनकले तो एक देवीजी केसिरया साडी पहने खडी थी। उनको देखकर इनकी रह फना हो गयी, दरवाजे से बाहर पाव रखने की िहममत नी हुई। एक तरफ देखकर तेजी से िनकल पडे और कोई सौ कदम भागते हुए चले गये। कम का िलखा, सामने से एक बुिढया लाठी टेकती चली आ रही थी। आप उससे लड गये। बुिढया िगर पडी और लगी कोसने—अरे अभागे , यह जवानी बहुत िदन न रहेगी, आंखो मे चबी छा गयी है, धके देता चलता है ! अमरनाथ उसकी खुशामद करने लगे—माफ करो, मुझे रात को कुछ कम िदखाई पडता है। ऐनक घर भूल आया। बुिढया का िमजाज ठणडा हुआ, आगे बढी और आप भी चले। एकाएक कानो मे आवाज आयी, ‘बाबू साहब, जरा ठहिरयेगा’ और वही केसिरया कपडोवाली देवीजी आती हुई िदखायी दी। अमरनाथ के पाव बंध गये। इस तरह कलेजा मजबूत करके खडे हो गये जैसे कोई सकूली लडका मासटर की बेत के सामने खडा होता है। देवीजी ने पास आकर कहा—आप तो ऐसे भागे िक मै जैसे आपको काट खाऊँगी। आप जब पढे-िलखे आदमी होकर अपना धमर नही समझते तो दुख होता है। देश की कया हालत है, लोगो को खदर नही िमलता, आप रेशमी सािडया खरीद रहे है !

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अमरनाथ ने लिजजत होकर कहा—मै सच कहता हूँ देवीजी, मैने अपने िलए नही खरीदी, एक साहब की फरमाइश थी देवीजी ने झोली से एक चूडी िलकालकर उनकी तरफ बढाते हुए कहा—ऐसे हीले रोज ही सुना करती हूँ। या तो आप उसे वापस कर दीिजए या लाइए हाथ मै चूडी पहना दँ। ू अमरनाथ—शौक से पहना दीिजए। मै उसे बडे गवर से पह नूँगा। चूडी उस बिलदान का िचह है जो देिवयो के जीवन की िवशेषता है। चूिडया उन देिवयो के हाथ मे थी िजनके नाम सुनकर आज भी हम आदर से िसर झुकाते है। मै तो उसे शमर की बात नही समझता। आप अगर और कोई चीज पहनाना चाहे तो वह भी शौक से पहना दीिजए। नारी पूजा की वसतु है, उपेका की नही। अगर सती, जो कौम को पैदा करती है, चूडी पहनना अपने िलए गौरव की बात समझती है तो मदो के िलए चूडी पहनाना कयो शमर की बात हो? देवीजी को उनकी इस िनलरजजता पर आशयर हुआ मगर वह इतनी आसानी से अमरनाथ को छोडनेवाली न थी। बोली—आप बातो के शेर मालूम होते है। अगर आप हृदय से सती को पूजा की वसतु मानते है, तो मेरी यह िवनती कयो नही मान जाते? अमरनाथ-इसिलए िक यह साडी भी एक सती की फरमाइश है। देवी-अचछा चिलए, मै आपके साथ चलूँगी, जरा देखूँ आपकी देवी जी िकस सवभाव की सती है। अमरनाथ का िदल बैठ गया। बेचारा अभी तक िबना-बयाहा था, इसिलए नही िक उसकी शादी न होती थी बिलक इसिलए िक शादी को वह एक आजीवन कारावास समझता था। मगर वह आदमी रिसक सवभाव के थे। शादी से अलग रहकर भी शादी के मजो से अिपरिचत न थे। िकसी ऐसे पाणी की जररत उनके िलए अिनवायर थी िजस पर वह अपने पेम को समिपरत कर सके, िजसकी तरावट से वह अपनी रखी-सूखी िजनदगी को तरो-ताजा कर सके, िजसके पेम की छाया मे वह जरा देर के िलए ठणडक पा सके , िजसके िदल मे वह अपनी उमडी हुई जवानी की भावनाओं को िबखेरकर उनका उगना देख सके। उनकी नजर ने मालती को चुना था िजसकी शहर मे घूम थी। इधर डेढ-दो साल से वह इसी खिलहान के दाने चुना करते थे। देवीजी के आगह ने उनहे थोडी देर के िलए उलझन मे डाल िदया था। ऐसी शिमरदं गी उनहे िजनदगी मे कभी न हुई थी। बोले-आज तो वह एक नयोते मे गई है, घर मे न होगी। देवीजी ने अिवशास से हंसकर कहा-तो मै समझ यह आपकी देवीजी का कुसूर नही, आपका कुसूर है। अमरनाथ ने लिजजत होकर कहा-मै आपसे सच कहता हूँ, आज वह घर पर नही। देवी ने कहा-कल आ जाएंगी? अमरनाथ बोले-हा, कल आ जाएंगी। देवी-तो आप यह साडी मुझे दे दीिजए और कल यही आ जाइएगा, मै आपके साथ चलूँगी। मेरे साथ दो-चार बहने भी होगी। २ मरनाथ ने िबना िकसी आपित के वह साडी देवीजी को दे दी और बोले-बहुत अचछा, मै कल आ जाऊँगा। मगर कया आपको मुझ पर िवशास नही है जो साडी की जमानत जररी है? देवीजी ने मुसकराकर कहा-सचची बात तो यही है िक मुझे आप पर िवशास नही। अमरनाथ ने सवािभमानपूवरक कहा- अचछी बात है, आप इसे ले जाएं। देवी ने कण-भर बाद कहा-शायद आपको बुरा लग रहा हो िक कही साडी गुम न हो जाए। इसे आप लेते जाइए, मगर कल आइए जरर।

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अमरनाथ सवािभमान के मारे बगैर कुछ कहे घर की तरफ चल िदये, देवीजी ‘लेते जाइए लेते जाइए’ करती रह गयी। अमरनाथ घर न जाकर एक खदर की दुकान पर गये और दो सूटो का खदर खरीदा। िफर अपने दजी के पास ले जाकर बोले-खलीफा, इसे रातो-रात तैयार कर दो, मुहमं ागी िसलाई दंगू ा। दजी ने कहा-बाबू साहब , आजकल तो होली की भीड है। होली से पहले तैयार न हो सकेगे। अमरनाथ ने आगह करते हुए कहा-मै मुंहमागी िसलाई दंगू ा, मगर कल दोपहर तक िमल जाए। मुझे कल एक जगह जाना है। अगर दोपहर तक न िमले तो िफर मेरे िकस काम के न होगे। दजी ने आधी िसलाई पेशगी ले ली और कल तैयार कर देने का वादा िकया। अमरनाथ यहा से आशसत होकर मालती की तरफ चले। कदम आगे बढते थे लेिकन िदल पीछे रहा जाता था। काश, वह उनकी इतनी िवनती सवीकार कर ले िक कल दो घणटे के िलए उनके वीरान घर को रोशन करे! लेिकन यकीनन वह उनहे खाली हाथ देखकर मुह ं फेर लेगी, सीधे मुह ं बात नही करेगी, आने का िजक ही कया। एक ही बेमुरौवत है। तो कल आकर देवीजी से अपनी सारी शमरनाक कहानी बयान कर दँू? उस भोले चेहरे की िनससवाथर उंमग उनके िदल मे एक हलचल पैदा कर रही थी। उन आंखो मे िकतनी गंभीरता थी, िकतनी सचची सहानुभूित, िकतनी पिवतता! उसके सीधे-सादे शबदो मे कमर की ऐसी पेरणा थी, िक अमरनाथ का अपने इिनदय-परायण जीवन पर शमर आ रही थी। अब तक काच के टुकडे को हीरा समझकर सीने से लगाये हुए थे। आज उनहे मालूम हुआ हीरा िकसे कहते है। उसके सामने वह टुकडा तुचछ मालूम हो रहा था। मालती की वह जादू-भरी िचतवन, उसकी वह मीठी अदाएं, उसकी शोिखया और नखरे सब जैसे मुलममा उड जाने के बाद अपनी असली सूरत मे नजर आ रहे थे और अमरनाथ के िदल मे नफरत पैदा कर रहे थे। वह मालती की तरफ जा रहे थे, उसके दशरन के िलए नही, बिलक उसके हाथो से अपना िदल छीन लेने के िलए। पेम का िभखारी आज अपने भीतर एक िविचत अिनचछा का अनुभव कर रहा था। उसे आशयर हो रहा था िक अब तक वह कयो इतना बेखबर था। वह ितिलसम जो मालती ने वषों के नाज-नखरे, हाव-भाव से बाधा था, आज िकसी छू -मनतर से तार-तार हो गया था। मालती ने उनहे खाली हाथ देखकर तयोिरया चढाते हुए कहा-साडी लाये या नही? अमरनाथ ने उदासीनता के ढंग से जवाब िदया-नही। मालती ने आशयर से उनकी तरफ देखा-नही! वह उनके मुंह से यह शबद सुनने की आदी न थी। यहा उसने समपूणर समपरण पाया था। उसका इशारा अमरनाथ के िलए भागयिलिप के समान था। बोली-कयो? अमरनाथ- कयो नही, नही लाये। मालती- बाजार मे िमली न होगी। तुमहे कयो िमलने लगी, और मेरे िलए। अमरनाथ-नही साहब, िमली मगर लाया नही। मालती-आिखर कोई वजह? रपये मुझसे ले जाते। अमरनाथ-तुम खामखाह जलाती हो। तुमहारे िलए जान देने को मै हािजर रहा। मालती-तो शायद तुमहे रपये जान से भी जयादा पयारे हो? अमरनाथ-तुम मुझे बैठने दोगी या नही? अमर मेरी सूरत से नफरत हो तो चला जाऊँ! मालती-तुमहे आज हो कया गया है, तुम तो इतने तेज िमजाज के न थे? अमरनाथ-तुम बाते ही ऐसी कर रही हो। मालती-तो आिखर मेरी चीज कयो नही लाये?

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अमरनाथ ने उसकी तरफ बडे वीर-भाव के साथ देखकर कहा-दुकान पर गया, िजललत उठायी और साडी लेकर चला तो एक औरत ने छीन ली। मैने कहा, मेरी बीवी की फरमाइश है तो बोली-मै उनही को दंगू ी, कल तुमहारे घर आऊँगी। मालती ने शरारत-भरी नजरो से देखते हुए कहा-तो यह किहए आप िदल हथेली पर िलये िफर रहे थे। एक औरत को देखा और उसके कदमो पर चढा िदया! अमरनाथ-वह उन औरतो मे नही, जो िदलो की घात मे रहती है। मालती-तो कोई देवी होगी? अमरनाथ-मै उसे देवी ही समझता हूँ। मालती-तो आप उस देवी की पूजा कीिजएगा? अमरनाथ-मुझ जैसे आवारा नौजवान के िलए उस मिनदर के दरवाजे बनद है। मालती-बहुत सुनदर होगी? अमरनाथ-न सुनदर है, न रपवाली, न ऐसी अदाएं कुछ, न मधुर भािषणी, न तनवंगी। िबलकुल एक मामूली मासूम लडकी है। लेिकन जब मेरे हाथ से उसने साडी छीन ली तो मै कया कर सकता हूँ। मेरी गैरत ने तो गवारा न िकया िक उसके हाथ से साडी छीन लूँ। तुमही इनसाफ करो, वह िदल मे कया कहती? मालती-तो तुमहे इसकी जयादा परवाह है िक वह अपने िदल मे कया कहेगी। मै कया कहूँगी, इसकी जरा भी परवाह न थी! मेरे हाथ से कोई मदर मेरी कोई चीज छीन ले तो देखूं, चाहे वह दस ू रा कामदेव ही कयो न हो। अमरनाथ-अब इसे चाहे मेरी कायरता समझो, चाहे िहममत की कमी, चाहे शराफत, मै उसके हाथ से न छीन सका। मालती-तो कल वह साडी लेकर आयेगी, कयो? अमरनाथ-जरर आयेगी। मालती-तो जाकर मुंह धो आओ। तुम इतने नादान हो, यह मुझे मालूम न था। साडी देकर चले आये, अब कल वह आपको देने आयेगी! कुछ भंग तो नही खा गये! अमरनाथ-खैर, इसका इमतहान कल ही हो जाएगा, अभी से कयो बदगुमानी करती हो। तुम शाम को जरा देर के िलए मेरे घर तक चली चलना। मालती-िजससे आप कहे िक यह मेरी बीवी है! अमरनाथ-मुझे कया खबर थी िक वह मेरे घर आने के िलए तैयार हो जाएगी, नही तो और कोई बहाना कर देता। मालती-तो आपकी साडी आपको मुबारक हो, मै नही जाती। अमरनाथ-मै तो रोज तुमहारे घर आता हूँ, तुम एक िदन के िलए भी नही चल सकती? मालती ने िनषुरता से कहा-अगर मौका आ जाए तो तुम अपने को मेरा शौहर कहलाना पसनद करोगे? िदल पर हाथ रखकर कहना। अमरनाथ िदल मे कट गये, बात बनाते हुए बोले-मालती, तुम मेरे साथ अनयाय कर रही हो। बुरा न मानना, मेरे व तुमहारे बीच पयार और मुहबबत िदखलाने के बावजूद एक दरू ी का पदा पडा था। हम दोनो एक-दस ू रे की हालत को समझते थे और इस पदे का हटाने की कोिशश न करते थे। यह पदा हमारे समबनधो की अिनवायर शतर था। हमारे बीच एक वयापािरक समझौता-सा हो गया। हम दोनो उसकी गहराई मे जाते हुए डरते थे। नही,बिलक मै डरता था और तुम जान-बूझकर न जाना चाहती थी। अगर मुझे िवशास हो जाता िक तुमहे जीवन-सहचरी बनाकर मै वह सब कुछ पा जाऊँगा िजसका मै अपने को अिधकारी समझता हूँ तो मै अब तक कभी का तुमसे इसकी याचना कर चुका होता! लेिकन तुमने कभी मेरे िदल मे यह िवशास पैदा करने की परवाह न की। मेरे बारे मे तुमहे यह शक है, मै नही कह सकता, तुमहे यह शक करने का मै ने कोई मौका नही िदया और मै कह सकता हूँ िक मै उससे कही बेहतर शौहर बन सकता हूँ िजतनी तुम बीवी बन सकती हो। मेरे िलए िसफर एतवार की

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जररत है और तुमहारे िलए जयादा वजनी और जयादा भौितक चीजो की। मेरी सथायी आमदनी पॉँच सौ से जयादा नही, तुमको इतने मे सनतोष न होगा। मेरे िलए िसफर इस इतमीनान की जररत है िक तुम मेरी और िसफर मेरी हो। बोलो मंजूर है। मालती को अमरनाथ पर रहम आ गया। उसकी बातो मे जो सचचाई भरी हुई थी, उससे वह इनकार न कर सकी। उसे यह भी यकीन हो गया िक अमरनाथ की वफा के पैर डगमगायेगे नही। उसे अपने ऊपर इतना भरोसा था िक वह उसे रससी से मजबूत जकड सकती है, लेिकन खुद जकडे जाने पर वह अपने को तैयार न कर सकी। उसकी िजनदगी मुहबबत की बाजीगरी मे, पेम के पदशरन मे गुजरी थी। वह कभी इस, कभी उस शाख मे चहकती िफरती थी, बैकेद, आजाद, बेबनद। कया वह िचिडया िपंजरे मे बनद रह सकती है िजसकी जबान तरह-तरह के मजो की आदी हो गयी हो? कया वह सूखी रोटी से तृपत हो सकती है? इस अनुभूित ने उसे िपघला िदया। बोली-आज तुम बडा जान बघार रहे हो? अमरनाथ-मैने तो केवल यथाथर कहा है। मालती-अचछा मै कल चलूँगी, मगर एक घणटे से जयादा वहा न रहूँगी। अमरनाथ का िदल शुिकये से भर उठा। बोला-मै तुमहारा बहुत कृतज हूँ मालती। अब मेरी आबर बच जायेगी। नही तो मेरे िलए घर से िनकलना मुिशकल हो जाता है। अब देखना यह है िक तुम अपना पाटर िकतनी खूबसूरती से अदा करती हो। मालती-उसकी तरफ से तुम इतमीनान रखो। बयाह नही िकया मगर बराते देखी है। मगर मै डरती हूँ कही तुम मुझसे दगा न कर रहे हो। मदों का कया एतबार। अमरनाथ ने िनशल भाव से कहा-नही मालती, तुमहारा सनदेह िनराधार है। अगर यह जंजीर पैरो मे डालने की इचछा होती तो कभी का डाल चुका होता। िफर मुझ-से वासना के बनदो का वहा गुजर ही कहा। ३ सरे िदन अमरनाथ दस बजे ही दजी की दुकान पर जा पहुँचे और िसर पर सवार होकर कपडे तैयार कराये। िफर घर आकर नये कपडे पहने और मालती को बुलाने चले। वहा देर हो गयी। उसने ऐसा तनाव-िसंगार िकया िक जैसे आज बहुत बडा मोचा िजतना है। अमरनाथ ने कहा-वह ऐसी सुनदरी नही है जो तुम इतनी तैयािरयॉँ कर रही हो। मालती ने बालो मे कंघी करते हुए कहा-तुम इन बातो को नही समझ सकते, चुपचाप बैठे रहो। अमरनाथ-लेिकन देर जो हो रही है। मालती-कोई बात नही। भय की उस सहज आशंका ने , जो िसतयो की िवशेषता है, मालती को और भी अिधक सतरक कर िदया था। अब तक उसने कभी अमरनाथ की ओर िवशेष रप से कोई कृपा न की थी। वह उससे काफी उदासीनता का बताव करती थी। लेिकन कल अमरनाथ की भंिगमा से उसे एक संकट की सूचना िमल चुकी थी और वह उस संकट का अपनी पूरी शिकत से मुकाबला करना चाहती थी। शतु को तुचछ और अपदाथर समझना िसतयो क िलए किठन है। आज अमरनाथ को अपने हाथ से िनकलते वह अपनी पकड को मजबूत कर रही थी। अगर इस तरह की उसकी चीजे एक-एक करके िनकल गयी तो िफर वह अपनी पितषा कब तक बनाये रख सकेगी? िजस चीज पर उसका कबजा है उसकी तरफ कोई आंख ही कयो उठाये। राजा भी तो एक-एक अंगुल जमीन के पीछे जान देता है। वह इस नये िशकारी को हमेशा के िलए अपने रासते से हटा देना चाहती थी। उसके जादू को तोड देना चाहती थी। शाम को वह परी जैसी, अपनी नौकरानी और नौकर को साथ लेकर अमरनाथ के घर चली। अमरनाथ ने सुबह दस बजे तक मदाने घर को जनानेपन का रंग देने मे खचा िकया था। ऐसी तैयािरया कर रखी थी जैसे कोई अफसर मुआइना करने वाला हो। मालती ने घर मे पैर रखा तो उसकी सफाई और सजावट देखकर बहुत खुश हुई। जनाने िहससे मे कई

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कुिसरया रखी थी। बोली-अब लाओ अपनी देवीजी को मगर जलद आना। वना मै चली जाऊँगी। अमरनाथ लपके हुए िवलायती दुकान पर गये। आज भी धरना था। तमाशाइयो की वही भीड। वहा देवी जी नही। पीछे की तरफ गये तो देवी जी एक लडकी के साथ उसी भेस मे खडी थी। अमरनाथ ने कहा-माफ कीिजएगा, मुझे देर हो गयी। मै आपके वादे की याद िदलाने आया हूँ। देवीजी ने कहा-मै तो आपका इनतजार कर रही थी। चलो सुिमता, जरा आपके घर हो आये। िकतनी देर है? अमरनाथ-बहुत पास है। एक तागा कर लूंगा। पनदह िमनट मे अमरनाथ दोनो को िलये घर पहुँचे। मालती ने देवीजी को देखा और देवीजी ने मालती को। एक िकसी रईस का महल था, आलीशान; दस ू री िकसी फकीर की कुिटया थी, छोटी-सी तुचछ। रईस के महल मे आडमबर और पदशरन था, फकीर की कुिटया मे सादगी और सफाई। मालती ने देखा, भोली लडकी है िजसे िकसी तरह सुनदर नही कह सकते। पर उसके भोलेपन और सादगी मे जो आकषरण था, उससे वह पभािवत हुए िबना न रह सकी। देवीजी ने भी देखा, एक बनी-संवरी बेधडक और घमणडी औरत है जो िकसी न िकसी वजह से उस घर मे अजनबी-सी मालूम हो रही है जैसे कोई जंगली जानवर िपंजरे मे आ गया हो। अमरनाथ िसर झुकाये मुजिरमो की तरह खडे थे और ईशर से पाथरना कर रहे थे िक िकसी तरह आज पदा रह जाये। देवी ने आते ही कहा-बहन, आप भी िसर से पाव तक िवदेशी कपडे पहने हुई है? मालती ने अमरनाथ की तरफ देखकर कहा-मै िवदेशी और देशी के फेर मे नही पडती। जो यह लाकर देते है वह पहनती हूँ। लाने वाले है ये, मै थोडे ही बाजार जाती हूँ। देवी ने िशकायत-भरी आंखो से अमरनाथ की तरफ देखकर कहा-आप तो कहते थे यह इनकी फरमाइश है, मगर आप ही का कसूर िनकल आया। मालती-मेरे सामने इनसे कुछ मत कहो। तुम बाजार मे भी दस ू रे मदों से बाते कर सकती हो, जब वह बाहर चले जायं तो िजतना चाहे कह-सुन लेना। मै अपने कानो से नही सुनना चाहती। देवीजी-मै कुछ कहती नही और बहनजी, मै कह ही कया कर सकती हूँ, कोई जबदरसती तो है नही, बस िवनती कर सकता हूँ। मालती-इसका मतलब यह है िक इनहे अपने देश की भलाई का जरा भी खयाल नही, उसका ठेका तुमही ने ले िलया है। पढे-िलखे आदमी है, दस आदमी इजजत करते है, अपना नफा-नुकसान समझ सकते है। तुमहारी कया िहममत िक उनहे उपदेश देने बैठो, या सबसे जयादा अकलमनद तुमही हो? देवीजी-आप मेरा मतलब गलत समझ रही है बहन। मालती-हॉँ, गलत तो समझूँगी ही, इतनी अकल कहा से लाऊँ िक आपकी बातो का मतलब समझूँ! खदर की साडी पहल ली, झोली लटका ली, एक िबलला लगा िलया, बस अब अिखतयार है जहा चाहे आये-जाये, िजससे चाहे हसे-बोले, घर मे कोई पूछता नही तो जेलखाने का भी कया डर! मै इसे हुडदंगापन समझती हूँ, जो शरीफो की बहू-बेिटयो को शोभा नही देता। अमरनाथ िदल मे कटे जा रहे थे। िछपने के िलए िबल ढू ंढ रहे थे। देवी की पेशानी पर जरा बल न था लेिकन आंखे डबडबा रही थी।

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अमरनाथ ने मालती से जरा तेज सवर मे कहा-कयो खामखाह िकसी का िदल दुखाती हो? यह देिवया अपना ऐश-आराम छोडकर यह काम कर रही है, कया तुमहे इसकी िबलकुल खबर नही? मालती-रहने दो, बहुत तारीफ न करो। जमाने का रंग ही बदला जा रहा है, मै कया करँगी और तुम कया करोगे। तुम मदों ने औरतो को घर मे इतनी बुरी तरह कैद िकया िक आज वे रसम-िरवाज, शमर-हया को छोडकर िनकल आयी है और कुछ िदनो मे तुम लोगो की हुकूमत का खातमा हुआ जाता है। िवलायती और िवदेशी तो िदखलाने के िलए है, असल मे यह आजादी की खवािहश है जो तुमहे हािसल है। तुम अगर दो-चार शािदयॉँ कर सकते हो तो औरत कयो न करे! सचची बात यह है, अगर आंखे है तो अब खोलकर देखो। मुझे वह आजादी न चािहए। यहा तो लाज ढोते है और मै शमर-हया को अपना िसंगार समझती हूँ। देवीजी ने अमरनाथ की तरफ फिरयाद की आंखो से देखकर कहा-बहन ने औरतो को जलील करने की कसम खा ली है। मै बडी-बडी उममीदे लेकर आयी थी, मगर शायद यहा से नाकाम जाना पडेगा। अमरनाथ ने वह साडी उसको देते हुए कहा-नही, िबलकुल नाकाम तो आप नही जायेगी, हा, जैसी कामयाबी की आपको उममीद थी वह न होगी। मालती ने डपटते हुए कहा-वह मेरी साडी है, तुम उसे नही दे सकते। अमरनाथ ने शिमरनं दा होते हुए कहा-अचछी बात है, न दंगू ा। देवीजी, ऐसी हालत मे तो शायद आप मुझे माफ करेगी। देवीजी चली गयी तो अमरनाथ ने तयोिरयॉँ बदलकर कहा-यह तुमने आज मेरे मुंह मे कािलख लगा दी। तुम इतनी बदतमीज और बदजबान हो, मुझे मालूम न था। मालती ने रोषपूणर सवर मे कहा-तो अपनी साडी उसे दे देती? मैने ऐसी कचची गोिलया नही खेली। अब तो बदतमीज भी हूँ, बदजबान भी, उस िदन इन बुराइयो मे से एक भी न थी जब मेरी जूितया सीधी करते थे? इस छोकरी ने मोिहनी डाल दी। जैसी रह वैसे फिरशते। मुबारक हो। यह कहती हुई मालती बाहर िनकली। उसने समझा था जबान चलाकर और ताकत से वह उस लडकी को उखाड फेकेगी लेिकन जब मालूम हुआ िक अमरनाथ आसानी से काबू मे आने वाला नही तो उसने फटकार बताई। इन दामो अगर अमरनाथ िमल सकता था तो बुरा न था। उससे जयादा कीमत वह उसके िलए दे न सकती थी। अमरनाथ उसके साथ दरवाजे तक आये जब वह तागे पर बैठी तो िबनती करते हुए बोले-यह साडी दे दो न मालती, मै तुमहे कल इससे अचछी साडी ला दँग ू ा। मगर मालती ने रखेपन से कहा-यह साडी तो अब लाख रपये पर भी नही दे सकती। अमरनाथ ने तयौिरया बदलकर जवाब िदया-अचछी बात है, ले जाओ मगर समझ लो यह मेरा आिखरी तोहफा है। मालती ने होठ चढाकर कहा-इसकी परवाह नही। तुमहारे बगैर मै मर नही जाऊँगी, इसका तुमहे यकीन िदलाती हूँ! -‘आिखरी तोहफा’ से

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पपपपपप थी। दस बजे ही सडके बनद हो गयी थी और गािलयो मे सनाटा था। बूढी जाडोबेवाकीमा रातने अपने नौजवान बेटे धमरवीर के सामने थाली परोसते हुए कहा-तुम इतनी रात

तक कहा रहते हो बेटा? रखे-रखे खाना ठंडा हो जाता है। चारो तरफ सोता पड गया। आग भी तो इतनी नही रहती िक इतनी रात तक बैठी तापती रहूँ। धमरवीर हृष-पुष, सुनदर नवयुवक था। थाली खीचता हुआ बोला-अभी तो दस भी नही बजे अममॉँ। यहा के मुदािदल आदमी सरे-शाम ही सो जाएं तो कोई कया करे। योरोप मे लोग बारह-एक बजे तक सैर-सपाटे करते रहते है। िजनदगी के मजे उठाना कोई उनसे सीख ले। एक बजे से पहले तो कोई सोता ही नही। मा ने पूछा-तो आठ-दस बजे सोकर उठते भी होगे। धमरवीर ने पहलू बचाकर कहा-नही, वह छ: बजे ही उठ बैठते है। हम लोग बहुत सोने के आदी है। दस से छ: बजे तक, आठ घणटे होते है। चौबीस मे आठ घणटे आदमी सोये तो काम कया करेगा? यह िबलकुल गलत है िक आदमी को आठ घणटे सोना चािहए। इनसान िजतना कम सोये, उतना ही अचछा। हमारी सभा ने अपने िनयमो मे दािखल कर िलया है िक मेमबरो को तीन घणटे से जयादा न सोना चािहए। मा इस सभा का िजक सुनते-सुनते तंग आ गयी थी। यह न खाओ, वह न खाओ, यह न पहनो, वह न पहनो, न बयाह करो, न शादी करो, न नौकरी करो, न चाकरी करो, यह सभा कया लोगो को संनयासी बनाकर छोडेगी? इतना तयाग तो संनयासी ही कर सकता है। तयागी संनयासी भी तो नही िमलते। उनमे भी जयादातर इिनदयो के गुलाम, नाम के तयागी है। आज सोने की भी कैद लगा दी। अभी तीन महीने का घूमना खतम हुआ। जाने कहा-कहा मारे िफरते है। अब बारह बजे खाइए। या कौन जाने रात को खाना ही उडा दे। आपित के सवर मे बोली-तभी तो यह सूरत िनकल आयी है िक चाहो तो एक-एक हडडी िगन लो। आिखर सभावाले कोई काम भी करते है या िसफर आदिमयो पर कैदे ही लगाया करते है? धमरवीर बोला-जो काम तुम करती हो वही हम करते है। तुमहारा उदेशय राषट की सेवा करना है, हमारा उदेशय भी राषट की सेवा करना है। बूढी िवधवा आजादी की लडाई मे िदलो-जान से शरीक थी। दस साल पहले उसके पित ने एक राजदोहातमक भाषण देने के अपराध मे सजा पाई थी। जेल मे उसका सवासथय िबगड गंया और जेल ही मे उसका सवगरवास हो गया। तब से यह िवधवा बडी सचचाई और लगन से राषट की सेवा सेवा मे लगी हुई थी। शुर मे उसका नौजवान बेटा भी सवयं सेवको मे शिमल हो गया था। मगर इधर पाच महीनो से वह इस नयी सभा मे शरीक हो गया और उसको जोशीले कायरकताओं मे समझा जाता था। मा ने संदेह के सवर मे पूछा-तो तुमहारी सभा का कोई दफतर है? ‘हा है।’ ‘उसमे िकतने मेमबर है?’ ‘अभी तो िसफर पचास मेमबर है? वह पचीस आदमी जो कुछ कर सकते है, वह तुमहारे पचीस हजार भी नही कर सकते। देखो अममा, िकसी से कहना मत वना सबसे पहले मेरी जान पर आफत आयेगी। मुझे उममीद नही िक िपकेिटंग और जुलूसो से हमे आजादी हािसल हो सके। यह तो अपनी कमजोरी और बेबसी का साफ एलान है। झंिडया िनकालकर और गीत गाकर कौमे नही आजाद हुआ करती। यहा के लोग अपनी अकल से काम नही लेते। एक आदमी ने कहा-यो सवराजय िमल जाएगा। बस, आंखे बनद करके उसके पीछे हो िलए। वह आदमी गुमराह है और दस ू रो को भी गुमराह कर रहा है। यह लोग िदल मे इस खयाल से खुश हो ले िक हम आजादी के करीब आते जाते है। मगर मुझे तो काम करने का यह ढंग िबलकुल खेल-सा मालूम होता है। लडको के रोने -धोने और मचलने पर िखलौने और िमठाइया िमला

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करती है-वही इन लोगो को िमल जाएगा। असली चीज तो तभी िमलेगी, जब हम उसकी कीमत देने को तैयार होगे। मा ने कहा-उसकी कीमत कया हम नही दे रहे है? हमारे लाखो आदमी जेल नही गये? हमने डंडे नही खाये? हमने अपनी जायदादे नही जबत करायी? धमरवीर-इससे अंगेजो को कया-कया नुकसान हुआ? वे िहनदुसतान उसी वकत छोडेगे, जब उनहे यकीन हो जाएगा िक अब वे एक पल-भर भी नही रह सकते। अगर आज िहनदोसतान के एक हजार अंगेज कतल कर िदए जाएं तो आज ही सवराजय िमल जाए। रस इसी तरह आजाद हुआ, आयरलैणड भी इसी तरह आजाद हुआ, िहनदोसतान भी इसी तरह आजाद होगा और कोई तरीका नही। हमे उनका खातमा कर देना है। एक गोरे अफसर के कतल कर देने से हुकूमत पर िजतना डर छा जाता है, उतना एक हजार जुलूसो से मुमिकन नही। मा सर से पाव तक कापं उठी। उसे िवधवा हुए दस साल हो गए थे। यही लडका उसकी िजंदगी का सहारा है। इसी को सीने से लगाए मेहनत-मजदरू ी करके अपने मुसीबत के िदन काट रही है। वह इस खयाल से खुश थी िक यह चार पैसे कमायेगा, घर मे बहू आएगी, एक टुकडा खाऊँगी, और पडी रहूँगी। आरजुओं के पतले-पतले ितनको से उसने ऐ िकशती बनाई थी। उसी पर बैठकर िजनदगी के दिरया को पार कर रही थी। वह िकशती अब उसे लहरो मे झकोले खाती हुई मालूम हुई। उसे ऐसा महसूस हुआ िक वह िकशती दिरया मे डू बी जा रही है। उसने अपने सीने पर हाथ रखकर कहा-बेटा, तुम कैसी बाते कर रहे हो। कया तुम समझते हो, अंगेजो को कतल कर देने से हम आजाद हो जायेगे? हम अंगेजो के दुशमन नही। हम इस राजय पणाली के दुशमन है। अगर यह राजय-पणाली हमारे भाई-बनदो के ही हाथो मे हो-और उसका बहुत बडा िहससा है भी-तो हम उसका भी इसी तरह िवरोध करेगे। िवदेश मे तो कोई दस ू री कौम राज न करती थी, िफर भी रस वालो ने उस हुकूमत का उखाड फेका तो उसका कारण यही था िक जार पजा की परवाह न करता था। अमीर लोग मजे उडाते थे, गरीबो को पीसा जाता था। यह बाते तुम मुझसे जयादा जानते हो। वही हाल हमारा है। देश की समपित िकसी न िकसी बहाने िनकलती चली जाती है और हम गरीब होते जाते है। हम इस अवैधािनक शासन को बदलना चाहते है। मै तुमहारे पैरो मे पडती हूँ, इस सभा से अपना नाम कटवा लो। खामखाह आग मे न कूदो। मै अपनी आंखो से यह दृशय नही देखना चाहती िक तुम अदालत मे खून के जुमर मे लाए जाओ। धमरवीर पर इस िवनती का कोई असर नही हुआ। बोला-इसका कोई डर नही। हमने इसके बारे मे काफी एहितयात कर ली है। िगरफतार होना तो बेवकूफी है। हम लोग ऐसी िहकमत से काम करना चाहते है िक कोई िगरफतार न हो। मा के चेहरे पर अब डर की जगह शिमरनं दगी की झलक नजर आयी। बोली-यह तो उससे भी बुरा है। बेगुनाह सजा पाये और काितल चैन से बैठे रहे! यह शमरनाक हरकत है। मै इसे कमीनापन समझती हूँ। िकसी को िछपकर कतल करना दगाबाजी है, मगर अपने बदले बेगुनाह भाइयो को फंसा देना देशदोह है। इन बेगुनाहो का खून भी काितल की गदरन पर होगा। धमरवीर ने अपनी मा की परेशानी का मजा लेते हुए कहा-अममा, तुम इन बातो को नही समझती। तुम अपने धरने िदए जाओ, जुलूस िनकाले जाओ। हम जो कुछ करते है, हमे करने दो। गुनाह और सवाब, पाप और पुणय, धमर और अधरम, यह िनरथरक शबद है। िजस काम का तुम सापेक समझती हो, उसे मै पुणय समझता हूँ। तुमहे कैसे समझाऊँ िक यह सापेक शबद है। तुमने भगवदगीता तो पढी है। कृषण भगवान ने साफ कहा है-मारने वाला मै हूँ, िजलाने वाला मै हूँ, आदमी न िकसी को मार सकता है, न िजला सकता है। िफर कहा रहा तुमहारा पाप? मुझे इस बात की कयो शमर हो िक मेरे बदले कोई दस ू रा मुजिरम करार िदया गया। यह वयिकतगत लडाई नही, इंगलैणड की सामूिहक शिकत से युद है। मै मरं या मेरे बदले कोई

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दस ू रा मरे, इसमे कोई अनतर नही। जो आदमी राषट की जयादा सेवा कर सकता है, उसे जीिवत रहने का जयादा अिधकार है। मा आशयर से लडके का मुह ं देखने लगी। उससे बहस करना बेकार था। अपनी दलीलो से वह उसे कायल न कर सकती थी। धमरवीर खाना खाकर उठ गया। मगर वह ऐसी बैठी रही िक जैसे लकवा मार गया हो। उसने सोचा-कही ऐसा तो नही िक वह िकसी का कतल कर आया हो। या कतल करने जा रहा हो। इस िवचार से उसके शरीर के कंपकंपी आ गयी। आम लोगो की तरह हतया और खून के पित घृणा उसके शरीर के कण-कण मे भरी हुई थी। उसका अपना बेटा खून करे, इससे जयादा लजजा, अपमान, घृणा की बात उसके िलए और कया हो सकती थी। वह राषट सेवा की उस कसौटी पर जान देती थी जो तयाग, सदाचार, सचचाई और साफिदली का वरदान है। उसकी आंखो मे राषट का सेवक वह था जो नीच से नीच पाणी का िदल भी न दुखाये, बिलक जररत पडने पर खुशी से अपने को बिलदान कर दे। अिहंसा उसकी नैितक भावनाओं का सबसे पधान अंग थी। अगर धमरवीर िकसी गरीब की िहमायत मे गोली का िनशाना बन जाता तो वह रोती जरर मगर गदरन उठाकर। उसे गहरा शोक होता, शायद इस शोक मे उसकी जान भी चली जाती। मगर इस शोक मे गवर िमला हुआ होता। लेिकन वह िकसी का खून कर आये यह एक भयानक पाप था, कलंक था। लडके को रोके कैसे, यही सवाल उसके सामने था। वह यह नौबत हरिगज न आने देगी िक उसका बेटा खून के जुमर मे पकडा न जाये। उसे यह बरदाशत था िक उसके जुमर की सजा बेगुनाहो को िमले। उसे ताजजुब हो रहा था, लडके मे यह पागलपन आया कयोकर? वह खाना खाने बैठी मगर कौर गले से नीचे न जा सका। कोई जािलम हाथ धमरवीर को उनकी गोद से छीन लेता है। वह उस हाथ को हटा देना चाहती थी। अपने िजगर के टुकडे को वह एक कण के िलए भी अलग न करेगी। छाया की तरह उसके पीछे-पीछे रहेगी। िकसकी मजाल है जो उस लडके को उसकी गोद से छीने! धमरवीर बाहर के कमरे मे सोया करता था। उसे ऐसा लगा िक कही वह न चला गया हो। फौरन उसके कमरे मे आयी। धमरवीर के सामने दीवट पर िदया जल रहा था। वह एक िकताब खोले पढता-पढता सो गया था। िकताब उसके सीने पर पडी थी। मा ने वही बैठकर अनाथ की तरह बडी सचचाई और िवनय के साथ परमातमा से पाथरना की िक लडके का हृदय-पिरवतरन कर दे। उसके चेहरे पर अब भी वही भोलापन, वही मासूिमयत थी जो पनदहबीस साल पहले नजर आती थी। ककरशता या कठोरता का कोई िचहृन न था। मा की िसदातपरता एक कण के िलए ममता के आंचल मे िछप गई। मा ने हृदय से बेटे की हािदरक भावनाओं को देखा। इस नौजवान के िदल मे सेवा की िकतनी उंमग है, कोम का िकतना ददर है, पीिडतो से िकतनी सहानुभूित है अगर इसमे बूढो की-सी सूझ-बूझ, धीमी चाल और धैयर है तो इसका कया कारण है। जो वयिकत पाण जैसी िपय वसतु को बिलदान करने के िलए ततपर हो, उसकी तडप और जलन का कौन अनदाजा कर सकता है। काश यह जोश, यह ददर िहंसा के पंजे से िनकल सकता तो जागरण की पगित िकतनी तेज हो जाती! मा की आहट पाकर धमरवीर चौक पडा और िकताब संभालता हुआ बोला-तुम कब आ गयी अममा? मुझे तो जाने कब नीद आ गयी। मॉँ ने दीवट को दरू हटाकर कहा-चारपाई के पास िदया रखकर न सोया करो। इससे कभीकभी दुघरटनाएं हो जाया करती है। और कया सारी रात पढते ही रहोगे ? आधी रात तो हुई, आराम से सो जाओ। मै भी यही लेटी जाती हूँ। मुझे अनदर न जाने कयो डर लगता है। धमरवीर-तो मै एक चारपाई लाकर डाले देता हूँ। ‘नही, मै यही जमीन पर लेट जाती हूँ।’ ‘वाह, मै चारपाई पर लेटूँ और तू जमीन पर पडी रहो। तुम चारपाई पर आ जाओ।’ ‘चल, मै चारपाई पर लेटूं और तू जमीन पर पडा रहे यह तो नही हो सकता।’ ‘मै चारपाई िलये आता हूँ। नही तो मै भी अनदर ही लेटता हूँ। आज आप डरी कयो?’

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‘तुमहारी बातो ने डरा िदया। तू मुझे भी कयो अपनी सभा मे नही सरीक कर लेता?’ धमरवीर ने कोई जवाब नही िदया। िबसतर और चारपाई उठाकर अनदर वाले कमरे मे चला। मॉँ आगे-आगे िचराग िदखाती हुई चली। कमरे मे चारपाई डालकर उस पर लेटता हुआ बोला-अगर मेरी सभा मे शरीक हो जाओ तो कया पूछना। बेचारे कचची-कचची रोिटया खाकर बीमार हो रहे है। उनहे अचछा खाना िमलने लगेगा। िफर ऐसी िकतनी ही बाते है िजनहे एक बूढी सती िजतनी आसानी से कर सकती है, नौजवान हरिगज नही कर सकते। मसलन, िकसी मामले का सुराग लगाना, औरतो मे हमारे िवचारो का पचार करना। मगर तुम िदललगी कर रही हो! मा ने गभभीरता से कहा-नही बेटा िदललगी नही कर रही। िदल से कह रही हूँ। मा का िदल िकतना नाजुक होता है, इसका अनदाजा तुम नही कर सकते। तुमहे इतने बडे खतरे मे अकेला छोडकर मै घर नही बैठ सकती। जब तक मुझे कुछ नही मालूम था, दस ू री बात थी। लेिकन अब यह बाते जान लेने के बाद मै तुमसे अलग नही रह सकती। मै हमेशा तुमहारे बगल मे रहूँगी और अगर कोई ऐसा मौका आया तो तुमसे पहले मै अपने को कुबान करँगी। मरते वकत तुम मेरे सामने होगे। मेरे िलए यही सबसे बडी खुशी है। यह मत समझो िक मै नाजुक मौको पर डर जाऊंगी, चीखूंगी, िचललाऊंगी, हरिगज नही। सखत से सखत खतरो के सामने भी तुम मेरी जबान से एक चीख न सुनोगे। अपने बचचे की िहफाजत के िलए गाय भी शेरनी बन जाती है। धमरवीर ने भिकत से िवहृल होकर मा के पैरो को चूम िलया। उसकी दृिष मे वह कभी इतने आदर और सनेह के योगय न थी। 2 सरे ही िदन परीका का अवसर उपिसथत हुआ। यह दो िदन बुिढया ने िरवालवर चलाने के अभयास मे खचर िकये। पटाखे की आवाज पर कानो पर हाथ रखने वाली, अिहंसा और धमर की देवी, इतने साहस से िरवालवर चलाती थी और उसका िनशाना इतना अचूक होता था िक सभा के नौजवानो को भी हैरत होती थी। पुिलस के सबसे बडे अफसर के नाम मौत का परवाना िनकला और यह काम धमरवीर के सुपुदर हुआ। दोनो घर पहुँचे तो मा ने पूछा-कयो बेटा, इस अफसर ने तो कोई ऐसा काम नही िकया िफर सभा ने कयो उसको चुना? धमरवीर मा की सरलता पर मुसकराकर बोला-तुम समझती हो हमारी कासटेिबल और सब-इंसपेकटर और सुपिरणटेणडैणट जो कुछ करते है, अपनी खुशी से करते है? वे लोग िजतने अतयाचार करते है, उनके यही आदमी िजममेदार है। और िफर हमारे िलए तो इतना ही काफी है िक वह उस मशीन का एक खास पुजा है जो हमारे राषट को चरम िनदरयता से बबाद कर रही है। लडाई मे वयिकतगत बातो से कोई पयोजन नही, वहा तो िवरोध पक का सदसय होना ही सबसे बडा अपराध है। मा चुप हो गयी। कण-भर बाद डरते-डरते बोली-बेटा, मैने तुमसे कभी कुछ नही मागा। अब एक सवाल करती हूँ, उसे पूरा करोगे? धमरवीर ने कहा-यह पूछने की कोई जररत नही अममा, तुम जानती हो मै तुमहारे िकसी हुकम से इनकार नही कर सकता। मा-हा बेटा, यह जानती हूँ। इसी वजह से मुझे यह सवाल करने की िहममत हुई। तुम इस सभा से अलग हो जाओ। देखो, तुमहारी बूढी मा हाथ जोडकर तुमसे यह भीख माग रही है। और वह हाथ जोडकर िभखािरन की तरह बेटे के सामने खडी हो गयी। धमरवीर ने कहकहा मारकर कहा-यह तो तुमने बेढब सवाल िकया, अममा। तुम जानती हो इसका नतीजा कया होगा? िजनदा लौटकर न आऊँगा। अगर यहा से कही भाग जाऊं तो भी जान नही बच

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सकती। सभा के सब मेमबर ही मेरे खून के पयासे हो जायेगे और मुझे उनकी गोिलयो का िनशाना बनना पडेगा। तुमने मुझे यह जीवन िदया है, इसे तुमहारे चरणो पर अिपरत कर सकता हूँ। लेिकन भारतमाता ने तुमहे और मुझे दोनो ही को जीवन िदया है और उसका हक सबसे बडा है। अगर कोई ऐसा मौका हाथ आ जाय िक मुझे भारतमाता की सेवा के िलए तुमहे कतल करना पडे तो मै इस अिपय कतरवय से भी मुह ं न मोड सकूंगा। आंखो से आंसू जारी होगे, लेिकन तलवार तुमहारी गदरन पर होगी। हमारे धमर मे राषट की तुलना मे कोई दस ू री चीज नही ठहर सकती। इसिलए सभा को छोडने का तो सवाल ही नही है। हा, तुमहे डर लगता हो तो मेरे साथ न जाओ। मै कोई बहाना कर दंगू ा और िकसी दस ू रे कामरेड को साथ ले लूंगा। अगर तुमहारे िदल मे कमजोरी हो, तो फौरन बतला दो। मा ने कलेजा मजबूत करके कहा-मैने तुमहारे खयाल से कहा था भइया, वना मुझे कया डर। अंधेरी रात के पदें मे इस काम को पूरा करने का फैसला िकया गया था। कोप का पात रात को कलब से िजस वकत लौटे वही उसकी िजनदगी का िचराग बुझा िदया जाय। धमरवीर ने दोपहर ही को इस मौके का मुआइना कर िलया और उस खास जगह को चुन िलया जहा से िनशाना मारेगा। साहब के बंगले के पास करील और करौदे की एक छोटी-सी झाडी थी। वही उसकी िछपने की जगह होगी। झाडी के बायी तरफ नीची जमीन थी। उसमे बेर और अमरद के बाग थे। भाग िनकलने का अचछा मौका था। साहब के कलब जाने का वकत सात और आठ बजे के बीच था, लौटने का वकत गयारह बजे था। इन दोनो वकतो की बात पकी तरह मालूम कर ली गयी थी। धमरवीर ने तय िकया िक नौ बजे चलकर उसी करौदेवाली झाडी मे िछपकर बैठ जाय। वही एक मोड भी था। मोड पर मोटर की चाल कुछ धीमी पड जायेगी। ठीक इसी वकत उसे िरवालवर का िनशाना बना िलया जाय। जयो-जयो िदन गुजरता जाता था, बूढी मा का िदल भय से सूखता जाता था। लेिकन धमरवीर के दैनिं दन आचरण मे तिनक भी अनतर न था। वह िनयत समय पर उठा, नाशता िकया, सनधया की और अनय िदनो की तरह कुछ देर पढता रहा। दो-चार िमत आ गये। उनके साथ दो-तीन बािजया शतरंज की खेली। इतमीनान से खाना खाया और अनय् िदनो से कुछ अिधक। िफर आराम से सो गया, िक जैसे उसे कोई िचनता नही है। मा का िदल उचाट था। खाने-पीने का तो िजक ही कया, वह मन मारकर एक जगह बैठ भी न सकती थी। पडोस की औरते हमेशा की तरह आयी। वह िकसी से कुछ न बोली। बदहवास-सी इधर-उधर दौडती िफरती थी िक जैसे चुिहया िबलली के डर से सुराख ढू ंढती हो। कोई पहाड-सा उसके िसर पर िगरता था। उसे कही मुिकत नही। कही भाग जाय, ऐसी जगह नही। वे िघसे-िपटे दाशरिनक िवचार िजनसे अब तक उसे सानतवना िमलती थी-भागय, पुनजरनम, भगवान की मजीवे सब इस भयानक िवपित के सामने वयथर जान पडते थे। िजरहबखतर और लोहे की टोपी तीर-तुपक से रका कर सकते है लेिकन पहाड तो उसे उन सब चीजो के साथ कुचल डालेगा। उसके िदलो-िदमाग बेकार होते जाते थे। अगर कोई भाव शेष था, तो वह भय था। मगर शाम होते-होते उसके हृदय पर एक शिनत-सी छा गयी। उसके अनदर एक ताकत पैदा हुई िजसे मजबूरी की ताकत कह सकते है। िचिडया उस वकत तक फडफडाती रही, जब तक उड िनकलने की उममीद थी। उसके बाद वह बहेिलये के पंजे और कसाई के छुरे के िलए तैयार हो गयी। भय की चरम सीमा साहस है। उसने धमरवीर को पुकारा-बेटा, कुछ आकर खा लो। धमरवीर अनदर आया। आज िदन-भर मा-बेटे मे एक बात भी न हुई थी। इस वकत मा ने धमरवीर को देखा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह संयम िजससे आज उसने िदन-भर अपने भीतर की बेचैनी को िछपा रखा था, जो अब तक उडे-उडे से िदमाग की शकल मे

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िदखायी दे रही थी, खतरे के पास आ जाने पर िपघल गया था-जैसे कोई बचचा भालू को दरू से देखकर तो खुशी से तािलया बजाये लेिकन उसके पास आने पर चीख उठे। दोनो ने एक दस ू रे की तरफ देखा। दोनो रोने लगे। मा का िदल खुशी से िखल उठा। उसने आंचल से धमरवीर के आंसू पोछते हुए कहाचलो बेटा, यहा से कही भाग चले। धमरवीर िचनता-मगन खडा था। मा ने िफर कहा-िकसी से कुछ कहने की जररत नही। यहा से बाहर िनकल जायं िजसमे िकसी को खबर भी न हो। राषट की सेवा करने के और भी बहुत-से रासते है। धमरवीर जैसे नीद से जागा, बोला-यह नही हो सकता अममा। कतरवय तो कतरवय है, उसे पूरा करना पडेगा। चाहे रोकर पूरा करो, चाहे हसंकर। हा, इस खयाल से डर लगता है िक नतीजा न जाने कया हो। मुमिकन है िनशाना चूक जाये और िगरफतार हो जाऊं या उसकी गोली का िनशाना बनूं। लेिकन खैर, जो हो, सो हो। मर भी जायेगे तो नाम तो छोड जाएंगे। कण-भर बाद उसने िफर कहा-इस समय तो कुछ खाने को जी नही चाहता, मा। अब तैयारी करनी चािहए। तुमहारा जी न चाहता हो तो न चलो, मै अकेला चला जाऊंगा। मा ने िशकायत के सवर मे कहा-मुझे अपनी जान इतनी पयारी नही है बेटा, मेरी जान तो तुम हो। तुमहे देखकर जीती थी। तुमहे छोडकर मेरी िजनदगी और मौत दोनो बराबर है, बिलक मौत िजनदगी से अचछी है। धमरवीर ने कुछ जवाब न िदया। दोनो अपनी-अपनी तैयािरयो मे लग गये। मा की तैयारी ही कया थी। एक बार ईशर का धयान िकया, िरवालवर िलया और चलने को तैयार हो गयी। धमरवीर का अपनी डायर िलखनी थी। वह डायरी िलखने बैठा तो भावनाओं का एक सागर-सा उमड पडा। यह पवाह, िवचारो की यह सवत: सफूितर उसके िलए नयी चीज थी। जैसे िदल मे कही सोता खुल गया हो। इनसान लाफानी है, अमर है, यही उस िवचार-पवाह का िवषय था। आरभभ एक ददरनाक अलिवदा से हुआ‘रखसत! ऐ दुिनया की िदलचिसपयो, रखसत! ऐ िजनदगी की बहारो, रखसत! ऐ मीठे जखमो, रखसत! देशभाइयो, अपने इस आहत और अभागे सेवक के िलए भगवान से पाथरना करना! िजनदगी बहुत पयारी चीज है, इसका तजुबा हुआ। आह! वही दुख-ददर के नशतर, वही हसरते और मायूिसया िजनहोने िजंदगी को कडुवा बना रखा था, इस समय जीवन की सबसे बडी पूंजी है। यह पभात की सुनहरी िकरनो की वषा, यह शाम की रंगीन हवाएं, यह गली-कूचे, यह दरो-दीवार िफर देखने को िमलेगे। िजनदगी बिनदशो का नाम है। बिनदशे एक-एक करके टू ट रही है। िजनदगी का शीराजा िबखरा जा रहा है। ऐ िदल की आजादी! आओ तुमहे नाउममीदी की कब मे दफन कर दँ। ू भगवान् से यही पाथरना है िक मेरे देशवासी फले-फूले, मेरा देश लहलहाये। कोई बात नही, हम कया और हमारी हसती ही कया, मगर गुलशन बुलबुलो से खाली न रहेगा। मेरी अपने भाइयो से इतनी ही िवनती है िक िजस समय आप आजादी के गीत गाये तो इस गरीब की भलाई से िलए दुआ करके उसे याद कर ले।’ डायरी बनद करके उसने एक लमबी सास खीची और उठ खडा हुआ। कपडे पहनेख् िरवालवर जेब मे रखा और बोला-अब तो वकत हो गया अममा! मा ने कुछ जवाब न िदया। घर समहालने की िकसे परवाह थी, जो चीज जहा पडी थी, वही पडी रही। यहा तक िक िदया भी न बुझाया गया। दोनो खामोश घर से िनकले।–एक मदानगी के साथ कदम उठाता, दस ू री िचिनतत और शोक-मगन और बेबसी के बोझ से झुकी हुई। रासते मे भी शबदो का िविनमय न हुआ। दोनो भागय-िलिप की तरह अटल, मौन और ततपर थे-गदाश तेजसवी, बलवान् पुनीत कमर की पेरणा, पदाश ददर, आवेश और िवनती से कापता हुआ।

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झाडी मे पहुँचकर दोनो चुपचाप बैठ गये। कोई आध घणटे के बाद साहब की मोटर िनकली। धमरवीर ने गौर से देखा। मोटर की चाल धीमी थी। साहब और लेडी बैठे थे। िनशाना अचूक था। धमरवीर ने जेब से िरवालवर िनकाला। मा ने उसका हाथ पकड िलया और मोटर आगे िनकल आयी। धमरवीर ने कहा-यह तुमने कया िकया अममा! ऐसा सुनहरा मौका िफर हाथ न आयेगा। मा ने कहा-मोटर मे मेम भी थी। कही मेम को गोली लग जाती तो? ‘तो कया बात थी। हमारे धमर मे नाग, नािगन और सपोले मे कोई भी अनतर नही।’ मा ने घृणा भरे सवर मे कहा-तो तुमहारा धमर जंगली जानवरो और वहिशयो का है, जो लडाई के बुिनयादी उसूलो की भी परवाह नही करता। सती हर एक धमर मे िनदोष समझी गयी है। यहा तक िक वहशी भी उसका आदर करते है। ‘वापसी के समय हरिगज न छोडू ंगा।’ ‘मेरे जीते-जी तुम सती पर हाथ नही उठा सकते।’ ‘मै इस मामले मे तुमहारी पाबिनदयो का गुलाम नही हो सकता।’ मा ने कुछ जवाब न िदया। इस नामदों जैसी बात से उसकी ममता टुकडे-टुकडे हो गयी। मुिशकल से बीस िमनट बीते होगे िक वही मोटर दस ू री तरफ से आती िदखायी पडी। धमरवीर ने मोटर को गौर से देखा और उछलकर बोला- लो अममा, अबकी बार साहब अकेला है। तुम भी मेरे साथ िनशाना लगाना। मा ने लपककर धमरवीर का हाथ पकड िलया और पागलो की तरह जोर लगाकर उसका िरवालवर छीनने लगा। धमरवीर ने उसको एक धका देकर िगरा िदया और एक कदम िरवालवर साधा। एक सेकेणड मे मा उठी। उसी वकत गोली चली। मोटर आगे िनकल गयी, मगर मा जमीन पर तडप रही थी। धमरवीर िरवालवर फेककर मा के पास गया और घबराकर बोला-अममा, कया हुआ? िफर यकायक इस शोकभरी घटना की पतीित उसके अनदर चमक उठी-वह अपनी पयारी मा का काितल है। उसके सवभाव की सारी कठोरता और तेजी और गमी बुझ गयी। आंसुओं की बढती हुई थरथरी को अनुभव करता हुआ वह नीचे झुका, और मा के चेहरे की तरफ आंसुओं मे िलपटी हुई शिमरनं दगी से देखकर बोला-यह कया हो गया अममा! हाय, तुम कुछ बोलती कयो नही! यह कैसे हो गया। अंधेरे मे कुछ नजर भी तो नही आता। कहॉँ गोली लगी, कुछ तो बताओ। आह! इस बदनसीब के हाथो तुमहारी मौत िलखी थी। िजसको तुमने गोद मे पाला उसी ने तुमहारा खून िकया। िकसको बुलाऊँ, कोई नजर भी तो नही आता। मा ने डू बती हुई आवाज मे कहा-मेरा जनम सफल हो गया बेटा। तुमहारे हाथो मेरी िमटी उठेगी। तुमहारी गोद मे मर रही हूँ। छाती मे घाव लगा है। जयो तुमने गोली चलायी, मै तुमहारे सामने खडी हो गयी। अब नही बोला जाता, परमातमा तुमहे खुश रखे। मेरी यही दुआ है। मै और कया करती बेटा। मॉँ की आबर तुमहारे हाथ मे है। मै तो चली। कण-भर बाद उस अंधेरे सनाटे मे धमरवीर अपनी पयारी मॉँ के नीमजान शरीर को गोद मे िलये घर चला तो उसके ठंडे तलुओं से अपनी ऑंसू-भरी ऑंखे रगडकर आितमक आहाद से भरी हुई ददर की टीस अनुभव कर रहा था।

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